चौरी चौरा कांड – 05 फरवरी 1922 | असहयोग आंदोलन और चौरी चौरा कांड का संबंध |

चौरी चौरा कांड | असहयोग आंदोलन और चौरी चौरा कांड का आपस में संबंध | गाँधी जी की गिरफ्तारी

आज के इस लेख में हम चौरी चौरा कांड के बारे में जानेंगे, जो कि भारतीय इतिहास की एक हृदयविदारक व दिल दहला देने वाली घटना थी, जिसे सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते है।

तो आइये जानते है…..

विषय सूची

चौरी चौरा कांड

चौरी चौरा कांड 05 फरवरी 1922 को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी चौरा नामक गाँव में हुआ था। चौरी चौरा नामक गाँव में यह घटना होने के कारण इस घटना को चौरी चौरा कांड के नाम से जाना जाता है। यह एक दिल दहला देने वाली घटना थी। इस घटना में 01 थानेदार और 21 सिपाहियों को थाने के अंदर आग में जलाकर मार दिया गया था।

चौरी चौरा कांड
चौरी चौरा कांड

चौरी चौरा की घटना कैसे हुई, कैसे इसकी शुरुआत हुई, कैसे इसका अंत हुआ, इस घटना का क्या असर हुआ? इसको आज विस्तृत रूप से समझेंगे। इस घटना को विधिवत समझने के लिए चौरी चौरा गाँव और इस घटना की पृष्ठभमि को समझना आवश्यक है।

चौरी चौरा गाँव

उत्तरप्रदेश गोरखपुर जिले में चौरी और चौरा नाम के दो छोटे-छोटे गांव थे। जनवरी 1885 में यहां एक रेलवे स्टेशन की स्थापना की गई। रेलवे के एक अधिकारी ने इन दोनों गाँवों को मिलाकर एक गाँव चौरी चौरा कर दिया था। 1885 के बाद इस गांव में मुंडेरा नाम की एक बाज़ार शुरू हुई थी। इस गांव के थाने से एक मील की दूरी पर छोटकी डुमरी नाम का एक गांव है। मुंडेरा बाजार और डुमरी गाँव का उल्लेख इसलिए किया जा रहा है क्योंकि इस गाँव और बाजार का चौरी चौरा कांड से सम्बन्ध है।

चौरी चौरा कांड
शहीद स्मारक चौरी चौरा

चौरी चौरा कांड की पृष्ठभूमि

पहले तो रॉलेट एक्ट उसके बाद जलियावाला बाग़ हत्याकांड ने लोगों के मन में अंग्रेजों के प्रति रोष पैदा कर दिया था। रॉलेट एक्ट को काला कानून भी कहा जाता है। 08 मार्च 1919 को यह कानून लागू किया गया था। इसके तहत ब्रिटिश सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया था कि वह किसी भी भारतीय पर बिना मुकदमा चलाए अदालत में पेश कर सकते थे और जेल में बंद कर सकते थे। इसके अलावा भी अन्य कई प्रकार के प्रावधान थे।

इस भेदभावपूर्ण कानून के चलते खिलाफत और स्वदेशी मुद्दे जोर पकड़ रहे थे। 1919-20 का दौर था, कांग्रेस में महात्मा गांधी जी के रूप में नए युग की शुरुआत हो चुकी थी। इन सबके बीच 13 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृतसर में जलियावाला बाग़ हत्याकांड हो गया। इस घटना ने तो अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों के गुस्से को और भी ज्यादा बढ़ा दिया था।

असहयोग आंदोलन की शुरुआत

दूरदर्शी सोच रखने वाले महात्मा गांधी ने लोगो के इस गुस्से को भांपते हुए कांग्रेस के सामने असहयोग आंदोलन शुरू करने का प्रस्ताव रखा और कांग्रेस ने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। 1 अगस्त 1920 से पूरे भारत में असहयोग आंदोलन शुरू हो गया। इस आंदोलन में गांधी जी का पूरा जोर स्वदेशी अपनाने पर था।

महात्मा गांधी के आह्वान पर बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया, वकीलों ने कोर्ट-कचहरी जाना छोड़ दिया, मजदूरों ने फैक्ट्रियों में काम करना बंद कर दिया। भारतीय विदेशी सामानों को बहिष्कृत करने लगे। पूरे भारत में लगातार हो रहे आंदोलनों के चलते उस समय लगभग 70 लाख वर्किंग डेज़ का नुकसान हुआ था। लगातार सफलतापूर्वक चल रहे आंदोलनों के चलते ब्रिटिश सरकार की नींद उड़ी हुई थी।

01 अगस्त 1920 को शुरू हुआ असहयोग आंदोलन तूल पकड़ते हुए उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के डुमरी गाँव जा पहुंचा। जनवरी 1921 में इस गांव में कांग्रेस के वालंटियरों (स्वयंसेवक, अवैतनिक, स्वेच्छा से काम करने वाले) के एक मंडल की स्थापना हुई।

असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन

शुरुआत में स्वयंसेवकों की भर्ती में बहुत कम लोग शामिल हो रहे थे। ये देखते हुए गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन के साथ मिला दिया। गांधी जी का ये निर्णय संगठन के लिए बहुत अच्छा साबित हुआ। हुआ ये कि गांधी जी के इस निर्णय से अब बड़ी संख्या में मुसलमान भी इस आंदोलन में जुड़ने लगे थे।

जनवरी 1922 में इसी गाँव के रहने वाले लाल मुहम्मद सांई ने गोरखपुर कांग्रेस खिलाफत कमेटी के हकीम आरिफ़ को डुमरी मंडल के लोगों को संबोधित करने के लिए बुलाया। हकीम आरिफ ने भी गांधी जी की तरह स्वदेशी पर जोर देते हुए मंडल के लोगों से कहा कि खुद से कपास की खेती करो, उसका सूत कातो, और उसी के बने कपड़े पहनो।

स्वदेशी आंदोलन में जुड़ने वालों को कई कसमें खिलाई जाती थीं, उन्हीं में से एक कसम थी खद्दर पहनने की। आरिफ़ ने लोगों से कहा कि अपने लड़ाई-झगड़े खुद निपटाओ, पुलिस के पास मत जाओ। इसी प्रकार की और भी कई बातें कहीं। जैसे- कार्यकर्ताओं से चंदा और चुटकी जमा करने को कहा, स्वराज आने के बाद लगान बहुत कम देना पड़ेगा ये भी कहा।

इसके अलावा आरिफ़ ने संगठन में कुछ पदाधिकारी नियुक्त कर दिए और वापस लौट गए। आरिफ के जाने के अगले दिन से ही मंडल में स्वयंसेवक शामिल करने का काम तेजी से शुरू कर दिया गया था। 

चुटकी का मतलब- दरअसल, असहयोग आंदोलन के समय गांधी जी ने सभी देशवासियों को सलाह दी थी कि वे रोज़ अपने खाने के अनाज में से सिर्फ़ एक मुट्ठी देश के लिए अलग रख लें, जिसे बाद में कांग्रेस के स्वयंसेवक घर-घर जाकर इकट्ठा कर लेते थे। इसे ही ‘चुटकी’ कहा जाता था। ये चुटकी-चुटकी जमा किया गया अनाज आंदोलन के समय स्वयंसेवकों के काम आता था।

चौरी चौरा कांड होने से कुछ दिन पहले का माहौल

चौरी चौरा की घटना से लगभग 10-12 दिन पहले डुमरी के करीब 30 से 35 स्वयंसेवकों ने मुंडेरा बाज़ार में धरना दिया। इस बाज़ार का मालिक था संत बक्स सिंह। संत बक्स के आदमियों ने स्वयंसेवकों को बाज़ार से खदेड़ दिया। स्वयंसेवकों ने तय किया कि अगली बार वे और ज्यादा संख्या में आएंगे। इसके बाद मंडल ने स्वयंसेवकों की संख्या बढाने पर काम किया।

जब स्वयंसेवकों की संख्या 300 से ज्यादा हो गई तो एक रिटायर्ड फौजी भगवान अहीर के नेतृत्व में उनकी फिजिकल ट्रेनिंग भी शुरू कर दी गई। भगवान अहीर प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सेना की तरफ से इराक में लड़े थे। मुख्य घटना से करीब चार दिन पहले कांग्रेस के मंडल कार्यकर्ताओं ने डुमरी में एक बड़ी सभा का आयोजन किया।

सभी स्वयंसेवकों को यह निर्देश दिया गया था कि अपने साथ भीड़ लाओ, संख्या कम हुई तो पुलिस पिटाई कर सकती है। गिरफ्तार भी किया जा सकता है। सभा में लगभग 4000 लोग शामिल हुए। गोरखपुर से आए कुछ नेताओं ने अपने भाषण में गांधी जी और मुहम्मद अली की बात करते हुए लोगों से उनकी बताई गई राह पर चलने की समझाइस दी।

सभा ख़त्म होते ही एक बड़े से चरखे के साथ तहसील, दफ्तर, थाना और बाजार के आस-पास एक बड़ा जुलूस निकाला गया। इस बार किसी ने कोई रोक-टोक नहीं की। इस सभा की सफलता से उत्साहित कार्यकर्ताओं ने सभा के दूसरे दिन 1 फरवरी, दिन बुधवार को फिर से संत बक्स सिंह की मुंडेरा बाजार में धरना देने का मन बनाया।

करीब 60 से 65 स्वयंसेवक नज़र अली, लाल मुहम्मद सांई और मीर शिकारी की अगुवाई में बाजार पहुंचे। लेकिन संत बक्स सिंह के आदमियों ने एक बार फिर उन्हें डांट-डपट कर भगा दिया। वापस जाने से पहले इन कार्यकर्ताओं ने संत बक्स सिंह के कर्मचारियों को चेतावनी देते हुए कहा कि अगली बार वे और भी ज्यादा लोगों के साथ आएंगे, फिर देखते है।

चौरी चौरा कांड की कहानी

चेतावनी देने के बाद 05 फरवरी 1922 को सुबह आठ बजे लगभग 800 लोग एक जगह इकठ्ठा हुए। चर्चा इस विषय पर हो रही थी कि ये संत बक्स के आदमी जो हमें बाजार से बार-बार डांट-फटकार कर भगा देते है इनसे बदला कैसे लिया जाए। चौरा थाने के दरोगा गुप्तेश्वर सिंह को इस मामले की भनक पहले ही लग गयी थी। उसके मुखबिरों ने उसे बताया था कि इस होने वाली सभा में कुछ अहम फैसले हो सकते हैं। इसलिए गुप्तेश्वर सिंह ने पहले से ही गोरखपुर से अतिरिक्त सिपाही बुला लिए थे जिनके पास बंदूकें भी थीं।

मामलें को शांत करने के लिए इस हो रही सभा में भी गुप्तेश्वर सिंह अपने कुछ आदमियों को भेजा। आदमियों द्वारा कार्यकर्ताओं को समझाने की कोशिश की गई, लेकिन कार्यकर्ताओं ने बात नहीं मानी। तय हो गया कि मुंडेरा बाज़ार को बंद कराया जाएगा। खतरा जो भी हो उससे निपटा जाएगा। कुछ ही देर बाद सभा ने एक जुलूस की शक्ल ले ली। ‘महात्मा गांधी की जय’ के नारे लगने लगे।

आंदोलनकारियों की भीड़ नारा लगाते हुए चौरा थाने की ओर बढ़ रही थी। लोगों की संख्या लगभग ढाई से तीन हजार तक हो गई थी। रास्ते में उन्हें संत बक्स सिंह के यहां काम करने वाला कर्मचारी अवधु तिवारी मिला। ये वही अवधु तिवारी था, जिसने पिछली बार कार्यकर्ताओं को मुंडेरा बाज़ार से भगाया था। अवधु तिवारी ने आंदोलनकारियों को इस बार पुलिस की बंदूकों से डराने की कोशिश, लेकिन जुलूस में शामिल लोगो ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ गए।

थाने से पहले ही रास्ते में दरोगा गुप्तेश्वर सिंह अपने बंदूकधारी सिपाहियों और चौकीदारों के साथ खड़ा दिखाई दिया। लोगों को तो पहले बंदूक से डर लगा, लेकिन भारी संख्याबल और संख्याबल की एकता ने डर को गायब कर दिया। जुलूस आगे बढ़ गया। इलाके के ज़मींदार सरदार उमराव सिंह के मैनेजर थे हरचरण सिंह। हरचरण ने पुलिस और जुलूस के नेताओं के बीच मध्यस्थता की कोशिश की, तो नेताओं ने आश्वासन दिया कि वे शांतिपूर्वक मुंडेरा बाज़ार चले जाएंगे।

इस आश्वासन पर हरचरण ने दरोगा और सिपाहियों को उनके रास्ते से हटने के लिए कह दिया। लेकिन इसके बाद जैसे-जैसे जुलूस आगे बढ़ता गया, बहुत से लोग जो भोपा और मुंडेरा की साप्ताहिक बाज़ारों में आए थे, वो भी जुलूस में शामिल हो गए। संख्या बहुत बढ़ गई थी। कुछ देर बाद जुलूस थाने के सामने से गुजरा। माहौल बिगड़ने की आशंका देखते हुए दरोगा ने जुलूस को अवैध तमाशबीनों का समूह (भीड़भाड़, जमघट, मजमा) घोषित कर दिया। इस पर भीड़ भड़क गई।

पहली गलती पुलिसवालों ने की

भीड़ भड़कते ही पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच धक्का-मुक्की शुरू हो गई। इस दौरान थाने के एक सिपाही ने बहुत बड़ी गलती कर दी। यही से शुरू होती है चौरी चौरा कांड होने की कहानी। सिपाही ने क्या किया कि एक आंदोलनकारी की गांधी टोपी उतार ली और उसे पैर से कुचलने लगा। उस दौर में गांधी टोपी और गांधी जी भारत की आजादी के प्रतीक माने जाने लगे थे। यहाँ तक कि लोग गांधी जी को भगवान् की तरह पूजने लगे थे।

अब क्या, गांधी टोपी को पैरों तले कुचलता देख आंदोलनकारियों का गुस्सा और विरोध सातवें आसमान पर पहुंच गया। हालात को बेकाबू होता देख पुलिसवालों ने घबराकर जुलूस में शामिल लोगों पर फ़ायरिंग शुरू कर दी। इस फायरिंग में 11 आंदोलनकारियों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए। फायरिंग करते-करते पुलिसवालों की गोलियां खत्म हो गईं इसलिए वो अपनी जान का बचाव करते हुए थाने की तरफ़ भाग दिए।

गोलीबारी और इस गोलीबारी से आंदोलनकारियों की हुई मौत से और भी भड़की भीड़ ने पुलिसवालों को दौड़ा लिया। भागते-भागते पुलिस वाले थाने पहुंचे। आंदोलनकारियों की भीड़ को अपनी तरफ आता देख पुलिस वालों ने खुद को लॉकअप में अन्दर से बंद कर लिया।

ये देख कुछ आंदोलनकारियों ने पास की ही दुकान से केरोसीन तेल का टिन उठा लाया और थाने के अंदर घास-पतवार रखकर उसमें केरोसीन डालते हुए पूरे थाने में केरोसीन को फैला दिया और बाहर से लॉक लगा के आग लगा दी। दरोगा गुप्तेश्वर सिंह ने भागने की कोशिश की, तो भीड़ ने उसे भी पकड़कर आग में फेंक दिया।

चौरी चौरा कांड में थाने के अंदर जलाए गए पुलिसकर्मी

दरोगा गुप्तेश्वर सिंह के अलावा सब-इंस्पेक्टर पृथ्वी पाल सिंह, बशीर खां, मंगरू चौबे, कपिलदेव सिंह, लखई सिंह, रघुवीर सिंह, रामलखन सिंह, विशेसर यादव, मुहम्मद अली, हसन खां, गदाबख्श खां, जमा खां, कपिल देव, रामबली पांडेय, इन्द्रासन सिंह, मर्दाना खां, जगदेव सिंह, जगई सिंह को भी आग के हवाले कर दिया गया।

उस दिन थाने में अपना वेतन लेने आए चौकीदार वजीर, घिंसई, जथई और कतवारू राम को भी आंदोलनकारियों ने जलती आग में ढ़केल दिया। कुल मिलाकर बाईस पुलिसवालों को जिन्दा जला दिया गया। किसी तरह अपनी जान बचाते हुए एक सिपाही मुहम्मद सिद्दीकी वहां से भागने में कामयाब हो गया।

चौरी चौरा कांड में एक सिपाही भागने में हुआ था कामयाब

किसी तरह अपनी जान बचाते हुए एक सिपाही मुहम्मद सिद्दीकी वहां से भागने में कामयाब हो गया। सिद्दीकी भागता हुआ पड़ोस के गौरी बाजार थाने पहुंचा। लेकिन वहां के दरोगा उस दिन उपस्थित नहीं थे। उनकी गैरमौजूदगी में मोहम्मद जहूर नाम का एक सब-ऑर्डिनेट थाने के इंचार्ज की जिम्मेदारी संभाल रहा था। जहूर को सिद्दीकी ने सारा घटनाक्रम बताया। उसने सामान्य डायरी में केस दर्ज कर लिया। इसके बाद जहूर और सिद्दीकी पास के कुसमही रेलवे स्टेशन पहुंचे और वहां से गोरखपुर जिला प्रशासन को सारी घटना की सूचना दी, जिस पर आगे कार्रवाई हुई।

चौरी चौरा कांड के पश्चात आंदोलनकारियों पर कानूनी कार्यवाही

चौरी-चौरा कांड के पश्चात पुलिस ने चौरी चौरा कांड में शामिल सैकड़ों आंदोलनकारियों पर केस दर्ज किया। गोरखपुर जिला कोर्ट में मुकदमों की सुनवाई हुई। पुलिस द्वारा दायर चार्जशीट के मुताबिक़ चौरी चौरा कांड में लगभग 6000 लोग शामिल थे, जिनमें से करीब 1000 लोगों से पूछताछ की गई और आखिर में 225  लोगों पर मुकदमा चलाया गया।

स्वयंसेवकों के एक ख़ास लीडर रहे मीर शिकारी को सरकारी गवाह बनाया गया और वहां के सेशन जज एच.ई. होल्म्स ने 9 जनवरी 1923 को अपना फैसला सुनाया। फैसले में होल्म्स ने 172 आरोपियों को फांसी की सजा, 2 लोगों को 2 साल की कैद की सजा सुनाई और 47 आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया।

गोरखपुर जिला कांग्रेस कमेटी ने गोरखपुर जिला कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की। हाईकोर्ट में मामले की पैरवी का जिम्मा कांग्रेस के बड़े नेता और वकील मदन मोहन मालवीय जी ने लिया। हाईकोर्ट के दो जज चीफ सर ग्रिमउड पीयर्स और जस्टिस पीगाॅट ने इस फैसले में 19 आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई और 16  लोगों को काला पानी भेजने का आदेश दिया। इनके अलावा बचे लोगों को भी कुछ साल की सजा दी गई, जबकि 38 लोगों को केस से बरी कर दिया गया था।

चौरी चौरा कांड में फांसी की सजा पाने वाले आंदोलनकारी

गोरखपुर जिला कोर्ट ने जहां 172 आरोपियों को गुनहगार मानते हुए फांसी की सजा सुनाई थी, वहीं इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विक्रम, दुदही, भगवान, अब्दुल्ला, काली चरण, लाल मुहम्मद, लौटी, मादेव, मेघू अली, नजर अली, रघुवीर, रामलगन, रामरूप, रूदाली, सहदेव, मोहन, संपत, श्याम सुंदर और सीताराम के लिए फांसी की सजा सुनाई।

चौरी चौरा कांड का असहयोग आंदोलन में असर

चौरी चौरा घटना की सूचना जैसे ही गांधी जी को मिली वो इस घटना से बहुत दुःखी हुए, उन्हें लगा कि ये बहुत गलत हुआ, अब अंग्रेज हमारे इस आंदोलन को दबा देंगे, क्यों कि कोई भी आंदोलन तभी तक चलता है जब तक उसमें हिंसा न हो, खासतौर से आंदोलन जब सरकार के खिलाफ चल रहा हो। और आप सभी एक चीज ये जानते ही होंगे की सरकार कुछ भी कर सकती है। सरकार और प्रशासन से बढ़कर कोई नहीं होता।

इस घटना के बाद लोग ख़ुशी के मारे जश्न मना रहे थे कि अच्छा भूजा अंग्रेजों को, मजा आ गया। ये जो हो रहा था इसे देख ऐसा लगने लगा था कि 1857 की क्रांति वाला माहौल फिर से उत्पन्न हो रहा है। गांधी जी एक वकील थे, उन्हें इस बात की समझ थी कि हमारे पास अभी केवल भीड़ है, अधिकार तो कोई है ही नहीं और ऊपर से हम अभी गुलाम है।

गांधी जी इस बात को भली-भांति समझ रहे थे, लेकिन वो इस बात को खुलकर बोल नहीं सकते थे। अगर बोलते तो इससे लोगों का मनोबल कम हो जाता। गांधी जी कई बार जहर का घूंट पिए है फिर भी लोगों को समझा नहीं पाए, क्यों कि लोगो में दूरदर्शिता नहीं थी।

सोचिये 5वीं पास गवर्नल जनरल को खुले आम लड़ने की चुनौती दे रहे थे। ये भी सोचिये अंग्रेजों के पास किस चीज की कमी थी, वो चाहते तो उस समय जहाजों में टैंक लगा के हमे भूज सकते थे। हमारे पास तो उस समय युद्ध लड़ने के लिए हथियार के रूप में केवल लकड़ी और छोटे-मोटे लोहे के औजार ही थे। नहीं लड़ सकते थे हम और ये बात गांधी जी समझते थे।

गांधी जी दोहरी समस्या में फंसे हुए थे क्यों कि आंदोलन उग्र हो चुका था, अगर गांधी जी आंदोलनकारियों से समझौता करते तो इस प्रकार की मार काट आगे चलने ही वाली थी। इसलिए दूरदर्शिता का उपयोग करते हुए गांधी जी ने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन स्थगित करना ही ठीक समझा।

असहयोग आंदोलन स्थगित करने के पीछे गांधी जी की सोच

असहयोग आंदोलन स्थगित करने के पीछे गांधी जी की सोच यह थी कि उन्होंने सोचा कि अगर आंदोलन स्थगित नहीं किया तो यह बदले की आग में धीरे-धीरे और उग्र होता जाएगा। पूरे देश में मार काट मच जायेगी। नतीजा ये निकलेगा की हमारे सारे प्रमुख नेताओं को अंग्रेजों को जेल में बंद करने का कोई न कोई बहाना मौका मिल जाएगा और अगर सारे नेता जेल में बंद हो जाएंगे तो इस भीड़ का नेतृत्व कौन करेगा।

बिना नेतृत्व के भीड़ का कोई मतलब नहीं होता। बता दे कि नेता बनते नहीं है पैदा होते है। हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को ही देख लीजिये, झूठ भी इतना तगड़ा बोल देते है कि जनता को लगता है कि सच बोल रहे है। सोचिये खुदा-न-खास्ता ऐसा ही आंदोलन चलता रहता और हमारे प्रमुख आंदोलनकारी नेता भीड़ में मारे जाते तो क्या होता।

बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय को देख लीजिये इनकी मृत्यु आंदोलन के दौरान ही हुई। खासतौर से लाला लाजपत राय को तो भीड़ में पुलिस ने डंडे से पीट दिया था। चोट सिर में लगने की वजह से उनकी मृत्यु हो गयी थी। अंग्रेज इस बात को बहुत अच्छे से समझते थे कि मेन लीडर को पकड़ने या मारने की कोशिश करो बाकि भीड़ कुछ नहीं कर पाएगी।

उस समय के जो प्रमुख लीडर थे उनमें सुभाष चंद्र बोस, मोती लाल नेहरू, पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल इत्यादि इन सब को सुरक्षित रखने के लिए गांधी जी ने सोचा कि वो आंदोलन को बंद करके खुद ही जेल में चले जाते है।

वैसे तो उस समय अंग्रेज उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकते थे, क्यों कि उन्हें डर था कि अगर गांधी को गिरफ्तार किया तो पूरी जनता हमारे खिलाफ हो जायेगी और परिणाम ये होगा कि देश में और भी ज्यादा मार काट मच जायेगी। इन सब बातों को सोचते हुए गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित करने का फैसला लिया।

असहयोग आंदोलन स्थगित करने की वजह से गांधी जी का विरोध

गांधी जी ने जब असहयोग आंदोलन को स्थगित किया उस समय वो गुजरात में थे। गांधी जी की यह घोषणा अधिकांश आंदोलनकारियों या फिर ऐसा कहे कि गरम दल वालों को स्तब्ध कर देने वाली थी और उन्होंने इसका विरोध किया। सुभाष चंद्र बोस को तो गाँधी जी का यह निर्णय बिल्कुल समझ में ही नहीं आया। सुभाष चंद्र बोस का कहना था कि जब आंदोलन अपनी चरम सीमा पर है तो इस प्रकार के निर्णय का क्या उद्देश्य है।

नेहरू जी और कुछ लोगों का कहना था कि अगर आंदोलन रोकना ही है तो सिर्फ गोरखपुर के इलाके में रोक दिया जाए, पूरे देश में क्यों? लेकिन महात्मा गांधी पूर्ण अहिंसा में विश्वास करने वाले थे, वो लोगों को समझाते थे कि हिंसा मत करो हिंसा का परिणाम सही नहीं होता। इस प्रकार से जनता गाँधी जी के खिलाफ जाने लगी, यहाँ तक की गाँधी जी को लोग पागल बोलने लगे।

गांधी जी की गिरफ्तारी और रिहाई

जनता को गांधी जी के खिलाफ जाता देख अंग्रेजों ने इस बात का फायदा उठाया। 10 मार्च 1922 को अंग्रेजों ने गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें 6 साल की जेल की सजा सुनाई। महात्मा गांधी आंदोलन को आगे रखने के लिए और बाकी के नेताओं को जीवित रखने के लिए 6 साल की सजा को स्वीकार्य कर लिया।

गांधी जी जेल चले गए लेकिन जेल के अंदर से उन्हें लगने लगा कि जेल के बाहर कोई अच्छे से नेतृत्व नहीं कर रहा इसलिए गांधी जी को लगा कि जेल से निकलना जरुरी है। इसी दौरान गांधी जी की थोड़ी तबियत ख़राब हो गयी। इस थोड़ी सी ख़राब तबियत को उन्होंने बहुत ज्यादा दिखाने की कोशिश की। गांधी जी अपने से उठते ही नहीं थे उन्हें चार आदमी पकड़ के उठाते थे।

गांधी जी की ऐसी हालत देख अंग्रेजों को लगने लगा की कही ये अंदर ही न मर जाए और अंदर मर गया तो बवाल हो जाएगा, क्यों कि महात्मा गांधी ने किसी को एक तमाचा भी नहीं मारा था और उसको आप जेल में मार डालेंगे तो क्या होगा। जनता बहुत ही ज्यादा आक्रोशित हो जाती इसलिए अंग्रेजों ने गांधी जी को 1924 में ही छोड़ दिया मतलब 2 ही साल में छोड़ दिया।

जैसे ही महात्मा गांधी जेल के बाहर आए बढ़िया से चलने लगे, ऐसा लगा जैसे कोई बीमारी थी ही नहीं। अब गांधी जी ये सोच रहे थे कि स्वास्थ्य ठीक होते ही कुछ दिनों में अंग्रेज उन्हें फिर से न जेल में डाल दे, इसलिए उन्होंने फंसाने वाला काम कर दिया। क्या था की कर्नाटक के बेलगाम में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था। तो गांधी जी बेलगाम पहुँच गए और वहा उन्होंने कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता की।

नोट: गांधी जी अपने जीवन में केवल एक ही बार अध्यक्षता किए है।

कांग्रेस के बेलगाम अधिवेशन में गांधी जी की अध्यक्षता

कांग्रेस के बेलगाम अधिवेशन में अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने कहा कि आप सबके के प्रयास और समर्थन से समाज की भलाई के लिए अंग्रेजों ने मेरी सजा को खत्म कर दिया और अगर आप सब चाहेंगे तो अंग्रेज मुझे दोबारा नहीं ले जा सकेंगे।

अब सोचिये अंग्रेजों ने तो केवल स्वास्थ्य कारणों के चलते गांधी जी को रिहा किया था। अंग्रेज गांधी जी की ये बात सुन रहे थे और उन्हें लगा की गांधी बहुत होशियार है, उल्टा हमें ही फंसा दिया। अंग्रेज तो फुल प्लान में थे कि गांधी की तबियत ठीक हो गयी है इन्हे वापस जेल ले चलो, लेकिन गांधी जी पहुँच गए कांग्रेस के अधिवेशन में।

आंदोलन को लेकर गांधी जी की दूरगामी और सटीक सोच

इस अधिवेशन के बाद गांधी जी जब वापस आए तो लोगो ने कहा की गांधी जी एक आंदोलन और हो जाए, लेकिन गांधी जी ने लोगों को समझाया की अभी आंदोलन वाला माहौल नहीं है। आंदोलन के लिए पहले अंग्रेजों को कही फंसने तो दो।

गांधी जी ने कहा कि अब हम आंदोलन मौका देखकर करेंगे। मौका का मतलब ये कि जब अंग्रेजों में चुनाव होने वाला हो या नेतृत्व परिवर्तन होने वाला हो या अन्य किसी प्रकार की समस्या हो तभी हम आंदोलन करेंगे। वो कहते है न की लोहा का आकार आप तभी बदल सकते है जब वह गर्म हो। दूसरे शब्दों में कहे तो लोहे पर तभी वार करना चाहिए जब वह गरम होकर लाल पड़ गया हो।

इस प्रकार से गाँधी जी अंग्रेजों की कमजोर परिस्थिति का फायदा उठाने का इन्तजार कर रहे थे। गरम लोहे पर वार करने के लिए हथौड़ी भी तो चाहिए न। तो हथौड़ी तैयार करने के लिए गांधी जी ने समाज सेवा का काम किया। गांधी जी ने प्लेग के मरीजों का इलाज करना शुरू किया। जिन प्लेग के मरीजों को देखते ही लोग भाग जाते थे गांधी जी ने उनका इलाज किया। लोगो को मन में लगने लगा की ऐसा आदमी होना चाहिए।

लोग सोचते कैसा आदमी है ये, एक तो आधा कपड़ा पहनता है, दूसरा प्लेग के मरीजों का इलाज करता है, अपने बारे में कुछ सोचता ही नहीं, इसके अलावा खुद तो कोई कांड नहीं किये थे फिर भी चौरी चौरा कांड की वजह से 2 साल की सजा काट के आए है।

समय चलता गया और आ गया 1930। अब इंग्लैण्ड में आम चुनाव होने वाला था। सभी का ध्यान था इंग्लैण्ड के आम चुनाव में, तभी गांधी जी को लगा कि अब लोहा गरम हो के लाल हो चुका है हथौड़ी मारने का सही समय आ गया है।

1930 में गांधी जी ने आंदोलन दांडी मार्च शुरू कर दिया। तो यहाँ पर देखिये गांधी जी के अनुसार रोज-रोज आंदोलन करना सही नहीं है। आंदोलन करने का एक सही समय होता है। रोज-रोज आंदोलन करने से वैल्यू कम हो जाती है। इस आंदोलन को देख ब्रिटेन में आम चुनावों में दो पार्टियों में चल रही टक्कर की नजर गांधी जी के आंदोलन पर पड़ी।

ब्रिटेन में दो पार्टिया कंजर्वेटिव पार्टी (विंस्टन चर्चिल) और लेबर पार्टी (रैमसे मैक्डोनाल्ड) के बीच टक्कर थी। विंस्टन चर्चिल ने मैक्डोनाल्ड से बोला की तुम किसी काम के नहीं हो, तो मैक्डोनाल्ड ने बोला की देखना अभी मै कैसे आंदोलन बंद कराता हूँ। मैक्डोनाल्ड ने गांधी जी को बुलाया लेकिन गांधी जी गए ही नहीं।

इस पर चर्चिल ने कहा कि देख लिया तुम्हारे बुलाने पर एक गुलाम देश का नेता नहीं आया, तो इस गुस्साए मैक्डोनाल्ड ने तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड इर्विन को फ़ोन किया की कैसे भी करके गांधी जी को भेजो। बड़ी मान मनौती के बाद गांधी जी जाने को तैयार हुए और जैसे ही पहुँचे तो चर्चिल उन्हें देखकर चौंक गया, बोला की यही है वो जो बुलाने पर नहीं आया था। इसी दौरान चर्चिल ने गांधी जी को अर्द्धनग्न फ़कीर कहा था।

तो इस प्रकार से मैंने चौरी चौरा कांड को विस्तार से समझाने की कोशिश की है। देखिये मेरे हिसाब से किसी भी घटना से पहले और उसके बाद के बारे में जानना आवश्यक है, तभी हम लम्बे समय तक याद रख पाएंगे और विस्तार से समझा पाएंगे, इसलिए यह लेख इतना बड़ा हो गया। उम्मीद करता हूँ कि आप सभी को चौरी चौरा कांड पूरा समझ में आया होगा।

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