आज के इस लेख में हम भारत में समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage In India) से जुड़े मुद्दे के बारे में जानेंगे की यह क्या है? साथ ही हम इसके समस्त पहलुओं के बारे में भी चर्चा करेंगे?
तो आइए जानते हैं…..
Same Sex Marriage In India – भारत में समलैंगिक विवाह
चर्चा में क्यों?
केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग वाली सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका का विरोध करते हुए कहा है कि इससे निजी कानूनों और स्वीकार्य सामाजिक मूल्यों के नाजुक संतुलन को पूरी तरह से नुकसान होगा। केंद्र सरकार के अनुसार, एक जैविक पुरुष और महिला के बीच विवाह भारत में एक पवित्र मिलन और एक संस्कार माना जाता है। इस वैधानिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से मानवीय रिश्तो में स्वीकृत मानदंड में कोई भी विचलन केवल विधायिका के माध्यम से हो सकता है, ना कि सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से।
क्या थी याचिकाकर्ताओं की मांगे?
याचिकाकर्ताओं ने विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act), 1954 की लिंग-तटस्थ तरीके से व्याख्या की मांग की, जहां किसी व्यक्ति के साथ उसके यौन रुझान के कारण भेदभाव नहीं किया जा सकता है। 1954 का विशेष विवाह अधिनियम उन जोड़ों के लिए विवाह का नागरिक रूप प्रदान करता है, जो अपने निजी कानून के तहत शादी नहीं कर सकते। याचिकाकर्ताओं ने विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग की है।
समलैंगिक विवाह की मांग करने वालों के हौसले कैसे बुलंद हुए
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने नवतेज सिंह जौहर व अन्य बनाम भारत संघ मामले में ये कहते हुए समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर किया था कि आईपीसी की धारा 377, संविधान के अनुच्छेद 15 (लैंगिक भेदभाव), अनुच्छेद 14 (समानता), अनुच्छेद 19 (स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और गरिमा) का उल्लंघन करती है। उस समय सुप्रीम कोर्ट ने जब इसे अपराध के दायरे से बाहर किया था, तो इन्हें लगा था कि सुप्रीम कोर्ट इनके पक्ष में है, इसलिए बढ़ते समय के साथ इनके हौसले और बुलंद हुए।
इसके अलावा एक और केस हुआ था जस्टिस पुट्टास्वामी व अन्य बनाम भारत संघ, जिसमें निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के अंतर्गत जीने के अधिकार के बराबर का दर्जा दिया गया था।
इन्हीं दोनों केसों का का प्रभाव देखिए कि ये अपने हौसलों में एक कदम और आगे बढ़ते हुए अब शादी की मांग करने लगे हैं। अगर उस समय इसे अपराध के दायरे से बाहर ना किया गया होता, तो आज ऐसा नहीं होता कि ये लोग समलैंगिक विवाह की मांग करते।
समलैंगिक विवाह मुद्दे को लेकर दायर याचिका में भारत सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच शुरुआती बातचीत
सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता: समाज का विकास कैसे होगा, यह तय करने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट के कंधों पर है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जब समान लिंग विवाह को मान्यता दे दी जाएगी, उसके बाद बच्चों का प्रश्न आएगा। चूँकि प्राकृतिक रूप से ये बच्चे तो पैदा कर नहीं पाएंगे। इस स्थिति में बच्चे गोद लिए जाएंगे। प्रश्न यहां पर यह उठता है कि जब समान लिंग के माता-पिता के साथ बच्चा रहेगा, तो उस बच्चे पर कैसा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ेगा। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के बजाए, संसद को उन बच्चों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव पर बहस करनी होगी, जिनके माता-पिता समान लिंग के हैं।
CJI डीवाई चंद्रचूड़: एक समलैंगिक (Lesbian) या समलैंगिक (Gay) जोड़े की गोद ली हुई संतान को समलैंगिक (Lesbian) या समलैंगिक (Gay) होने की आवश्यकता नहीं है। यह बच्चे की धारणा पर निर्भर करता है।
सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता: यह भारत के मुख्य न्यायाधीश या मेरी निजी राय हो सकती है, लेकिन यह बच्चे के मनोविज्ञान का उचित प्रतिबिंब नहीं हो सकता है। इसलिए मैं यही कहना चाहूंगा कि समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से पहले संसद में इस मुद्दे पर बहस जरूर कर लेनी चाहिए।
SC Bench: यह मामला अब पांच जजों की संवैधानिक पीठ के पास सुनवाई के लिए भेजना जरूरी हो गया है। के पुट्टास्वामी (निजता का अधिकार) और नवतेज जौहर (समलैंगिक सेक्स को अपराध की श्रेणी से बाहर करने वाले) मामलों में अदालत के फैसलों पर भरोसा करने के अलावा, याचिकाकर्ताओं ने जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार और सम्मान के अधिकार से उत्पन्न होने वाले व्यापक संवैधानिक अधिकारों पर जो जोर दिया है, उसके लिए संवैधानिक पीठ के पास चर्चा के लिए भेज देना चाहिए।
इन समस्त घटनाओं के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 145 (3) का प्रयोग करते हुए यह मामला सुनवाई के लिए पांच जजों की संवैधानिक पीठ के पास भेज दिया, जिस पर सुनवाई 18 अप्रैल 2023 से शुरू होगी।
समलैंगिक विवाह के विरोध में केंद्र सरकार के तर्क
केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया बताती है कि वह समलैंगिक विवाह के पक्ष में नहीं है। समलैंगिक विवाह को लेकर केंद्र सरकार का कहना है कि…
- समलैंगिक विवाह भारत की परंपराओं के खिलाफ है।
- इसे देश के नागरिकों की निजता का मुद्दा नहीं माना जा सकता।
- और सबसे बड़ी समस्या की बात शादी के बाद झगड़ा होने पर पति और पत्नी की पहचान कैसे होगी।
- इसके अलावा कोर्ट में केंद्र सरकार ने यह भी तर्क दिया कि 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था, लेकिन इसके आधार पर समलैंगिक विवाह की मान्यता देने का दावा नहीं किया जा सकता है।
समलैंगिक विवाह को लेकर दायर याचिका में सुप्रीम कोर्ट का कथन
केंद्र सरकार द्वारा दिए गए तर्क के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समलैंगिक विवाह के मुद्दे पर यदि हमने जल्दबाजी में कोई निर्णय ले लिया, तो वह आज के विषय में Seminal Importance का मुद्दा कहलाएगा। इसलिए इस विषय पर कोई जल्दबाजी ना करते हुए अच्छा होगा कि यह विषय संवैधानिक पीठ के पास भेजा जाय। इसलिए यह निर्णय लिया गया है कि 18 अप्रैल 2023 से 5 जजों की संवैधानिक पीठ इस मुद्दे की सुनवाई करेगी।
इस मुद्दे के बारे में एक खास बात यह बता दूं कि जब इस मुद्दे की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में संवैधानिक पीठ कर रही होगी, उस समय इसकी लाइव स्ट्रीमिंग यूट्यूब में चलेगी, जिसे हर कोई देख सकेगा कि सुनवाई कैसे चल रही है, पक्ष और विपक्ष ने क्या तर्क दिए? यानी कि इस मुद्दे की पारदर्शी रूप से सुनवाई होगी।
Seminal Importance – वर्तमान में लिया गया ऐसा निर्णय या फैसला, जिसका प्रभाव भविष्य की पीढ़ियों में पड़ेगा।
विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act), 1954
भारत में विवाह संबंधित व्यक्तिगत कानूनों को हिंदू विवाह अधिनियम 1955, मुस्लिम विवाह अधिनियम 1954 या विशेष विवाह अधिनियम 1954 में से किसी एक के तहत पंजीकृत किया जाता है। यानी कि भारत में किसी भी महिला और पुरुष के बीच होने वाली शादी को किसी न किसी नियम के तहत मान्यता प्राप्त है। शादी के बाद पति और पत्नी दोनों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने का कर्तव्य न्यायपालिका का होता है।
विशेष विवाह अधिनियम 1954, भारत की संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है, जो भारतीय नागरिकों के विवाह पर लागू होता है, चाहे वो भारत में रह रहे हो या फिर विदेशों में। जब कोई भी व्यक्ति दूसरे धर्म में शादी करता है, तो वह व्यक्तिगत कानूनों के अंतर्गत नहीं, बल्कि विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अंतर्गत आता है।
उदाहरण के माध्यम से समझते हैं। जैसे- भारत में रह रहा कोई हिंदू लड़का दूसरे धर्म, जैसे मान लीजिए कि मुस्लिम धर्म की लड़की से शादी करता है, तो उस पर विशेष विवाह अधिनियम 1954 लागू होगा। वहीं अगर वह हिंदू धर्म की ही लड़की से शादी करता, तो उस पर हिंदू विवाह अधिनियम 1955 लागू होगा।
इसी प्रकार मान लीजिए कि भारत का कोई हिंदू या मुस्लिम लड़का संयुक्त राज्य अमेरिका में नौकरी करने के उद्देश्य से गया हुआ है और उसे वहां की कोई क्रिश्चियन लड़की पसंद आ गई और वह उससे विवाह करना चाहता है। तो देखिए, यहां पर एक धर्म से दूसरे धर्म में विवाह हो रहा है। इस स्थिति में विवाह, विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अंतर्गत आएगा।
विशेष टिप्पणी: विशेष विवाह अधिनियम 1954 का सेक्शन 4 किसी भी दो नागरिकों को विवाह करने की इजाजत देता है, लेकिन सब-सेक्शन (c) सिर्फ पुरुषों और महिलाओं की शादी को इजाजत देता है। ऐसे में अगर सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक विवाह को मान्यता देती है, तो इसका मतलब जेंडर को न्यूट्रल बना दिया जाएगा।
भारत में समलैंगिक विवाह की वैधता क्या है (Is Same Sex Marriage Legal In India)?
भारतीय संविधान के तहत विवाह करने के अधिकार को मौलिक या संवैधानिक अधिकार के रूप में स्पष्ट रूप से मान्यता नहीं दी गई है। यद्यपि विवाह को विभिन्न वैधानिक अधिनियम के माध्यम से विनियमित किया जाता है। मौलिक अधिकार के रूप में इसकी मान्यता केवल भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है। कानून की ऐसी घोषणा संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत पूरे भारत के सभी अदालतों पर लागू होती है।
समलैंगिक के अंतर्गत LGBTQ समुदाय
L – लेस्बियन: महिला से महिला का संबंध।
G – गे: पुरुष से पुरुष का संबंध।
B – बाइसेक्सुअल: ऐसे व्यक्ति जिनके संबंध लड़की और लड़का दोनों से हों।
T – ट्रांसजेंडर: जिनका लिंग जन्म के समय तय किए गए लिंग से वर्तमान में मेल नहीं खाता हो।
Q – क्वियर: जिन लोगों को पता नहीं है कि वह मेल है या फीमेल। जिन्हें यह भी नहीं पता है कि वो किससे आकर्षित होते हैं।
समलैंगिक विवाह के नैतिक पहलू
समानता: समलैंगिक जोड़ों को शादी करने के अधिकार से वंचित करना भेदभाव और बुनियादी मानवाधिकारों के उल्लंघन के रूप में देखा जाता है।
सहमति: समलैंगिक जोड़ों को विवाह करने में सक्षम होना चाहिए।
नुकसान: समलैंगिक विवाह के विरोधियों का तर्क है कि यह समाज के लिए या उन बच्चों के लिए हानिकारक होगा, जिन्हें सामान लिंग वाले जोड़ों द्वारा पाला जाएगा। हालांकि, कई अध्ययनों में पाया गया है कि इन दावों का समर्थन करने के लिए कोई सबूत नहीं है और समान लिंग वाले माता-पिता द्वारा उठाए गए बच्चे विपरीत लिंग वाले माता-पिता द्वारा उठाए गए बच्चों की तरह ही व्यवहार करते हैं।
परंपरा: कुछ लोगों का तर्क है कि समान लिंग विवाह पारंपरिक मूल्यों और मान्यताओं के विरुद्ध हैं।
धार्मिक मान्यताएं: कुछ लोगों के लिए समलैंगिक विवाह उनके धार्मिक विश्वासों के विरुद्ध हो सकता है, जबकि हर किसी को अपने स्वयं के विश्वासों का अधिकार है। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि धार्मिक मान्यताओं का उपयोग भेदभाव को सही ठहराने या दूसरों को समान अधिकारों से वंचित करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
दुनिया में कौन से देश समलैंगिक विवाह की अनुमति देते हैं?
- दुनिया के 32 देशों में से, जो देश समलैंगिक विवाह को मान्यता देते हैं, उनमें से कम से कम 10 देशों ने अदालती फैसलों द्वारा समलैंगिक विवाह को मान्यता दी है। जबकि शेष 22 देशों ने संसद द्वारा कानून के माध्यम से इसकी अनुमति दी है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका: 26 जून 2015 को यूएस सुप्रीम कोर्ट ने 5:4 के फैसले में विवाह समानता को भूमि का कानून बनाने की अनुमति दी और सभी 50 राज्यों में समलैंगिक जोड़ों को पूर्ण अधिकार दिया, साथ ही कानून के तहत समान मान्यता भी।
- ताइवान: 2019 में, ताइवान समलैंगिक विवाह को मान्यता देने वाला पहला एशियाई देश बना। भारत इसे मान्यता देने वाला दूसरा एशियाई देश बन सकता है।
- कोस्टा रिका: 26 मई 2020 को, कोस्टा रिका मध्य अमेरिका का पहला देश बना, जिसने समान लिंग विवाह पर प्रतिबंध लगाने वाले कानूनों को असंवैधानिक घोषित किया।
- ऑस्ट्रेलिया, आयरलैंड और स्विट्जरलैंड: 2017 में एक राष्ट्रव्यापी जनमत संग्रह के बाद, ऑस्ट्रेलिया की संसद ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने वाला कानून पारित किया। समलैंगिक विवाह विधेयक पर हस्ताक्षर करने वाला दुनिया का पहला देश नीदरलैंड है। 1 अप्रैल 2001 से यहां समलैंगिक विवाहों को मान्यता प्राप्त है।
- इसके अलावा यमन, ईरान समेत दुनिया के 13 देश ऐसे हैं, जहां समलैंगिक विवाह तो छोड़िए, यहां समलैंगिक संबंध बनाए जाने पर भी मौत की सजा दी जाती है।
निष्कर्ष
समलैंगिक विवाह को वैध बनाने से समाज पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा, जो व्यक्ति और जोड़ें के स्तर से शुरू होकर परिवार, समुदाय और अंत में समाज के स्तर तक पहुंचेगा।
भारत में समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage In India) के मुद्दे पर आप सभी का क्या कहना है? आप अपनी राय कमेंट के माध्यम से जरूर शेयर करें।
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स्वत्रंता और निजता का अधिकार सभी को है । जो की हमारे संविधान ने हमको दिया है । कोर्ट को पक्ष और विपक्ष दोनों नजरिया से देख कर इसका फैसला करना चाहिए ना की जनता के दबाब में । भारतीय संस्कृति में इस तरफ के विवाह को मान्यता देना बहुत ही चुनौतीपूर्ण है।
सही बात है