World War 1: क्यों हुआ था प्रथम विश्व युद्ध ? जानें पूरा इतिहास और कहानी, आसान भाषा में

प्रथम विश्व युद्ध | World War 1

आज के इस लेख में हम प्रथम विश्व युद्ध – World War 1 के बारें में जानेंगे कि प्रथम विश्व युद्ध क्यों हुआ था, क्या थे इसके होने के कारण और कौन-कौन से देशों ने इसमें हिस्सा लिया और क्या इसके परिणाम निकले?

तो आइए जानते हैं…….

प्रथम विश्व युद्ध (World War 1) 1914 में शुरू हुआ, लेकिन ऐसे ही इतना बड़ा युद्ध तो नहीं शुरू हो गया होगा, जब कोई बड़ा युद्ध होता है, तो उसका माहौल बहुत पहले से ही बन रहा होता है, तो प्रथम विश्व युद्ध – World War 1 को विधिवत समझने और इसके पीछे का कारण जानने के लिए हमें 1914 से पहले के यूरोप के बारे में जानना आवश्यक है कि 1914 से पहले यूरोप में क्या चल रहा था, यूरोप का वातावरण कैसा था, कौन सी बड़ी गतिविधियां हो रही थी, जो प्रथम विश्व युद्ध होने की जिम्मेदार बनी? तो आइए उन पर चर्चा कर लेते हैं।

विषय सूची

1914 से पहले यूरोप का माहौल – The climate of Europe before 1914

यूरोपीय शक्ति का संतुलन बिगड़ना – European Power Imbalance

19वीं और 20वीं सदी में यूरोपीय देशों ने दुनिया के बड़े हिस्से में राज किया था, जिसमें अंग्रेज, फ्रांसीसी, पुर्तगाली खासतौर से शामिल थे, लेकिन इसमें जर्मनी सबसे पीछे था। यानी यूरोप की क्रांति में जर्मनी का कोई खास योगदान नहीं था।

लेकिन 1871 में जर्मनी का एकीकरण हुआ और बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मनी एक शक्तिशाली राष्ट्र बनकर उभरा और इसी ने यूरोपीय शक्ति के संतुलन को गड़बड़ा दिया। ऐसा इसलिए, क्यों की इंग्लैण्ड और फ़्रांस के लिए जर्मनी एक चुनौती बन गया था, जिससे यूरोपीय राष्ट्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना बढ़ी। यानी फ्रांस, इंग्लैण्ड और जर्मनी के बीच कॉम्पटीशन बढ़ने लगा था।

गुप्त संधियों का प्रचलन – Secret Treaties

19वीं सदी में कई यूरोपीय देशों के बीच गुप्त संधियों का प्रचलन चल रहा था, जैसे फ्रांस और ब्रिटेन के बीच संधि हुई की अगर हम दोनों में से किसी के ऊपर भी आक्रमण होता है, तो दूसरा देश उसमें स्वतः ही शामिल हो जाएगा। ऐसे ही अन्य कई देशों के बीच गुप्त रूप से संधियां हो रही थी।

इन संधियों की शुरुआत की थी जर्मन शासक बिस्मार्क ने। बिस्मार्क कई देशों के साथ इस प्रकार की संधियां करने लगा था, जिसे देख अन्य यूरोपीय देश भी कॉपी करने लगे। उस समय मुख्य रूप से दो संधियां हुई।

1.Triple Alliance (1882)- यह संधि जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और इटली के बीच हुई थी। इस संधि का प्रस्ताव था कि अगर किसी भी एक देश के ऊपर आक्रमण होता है, तो दो अन्य देश भी उसमें शामिल होकर मदद करेंगे, लेकिन समय आने पर इटली पीछे हट गया था, इसके बारे में हम आगे बताएंगे।

2.Triple Entente (1907)- यह संधि फ्रांस, ब्रिटेन और रूस के बीच हुई थी। पहले यह संधि Entente Cordiale के नाम से 1904 में फ्रांस और ब्रिटेन के बीच हुई थी, लेकिन 1907 में रूस के जुड़ जाने के बाद इसे Triple Entente के नाम से जाना जाने लगा। Entente एक फ्रांसीसी भाषा का शब्द है, जिसका मतलब होता है मित्र। इसीलिए युद्ध समाप्ति के बाद इन्हे मित्र राष्ट्र कहा गया था।

ये दोनों संधिया भी आगे चलकर प्रथम विश्व युद्ध – World War 1 का कारण बनी थी, क्यों की इन दो संधियों से यूरोप दो भागो में विभाजित हो गया था और ये एक-दूसरे के दुश्मन बन गए थे।

सैन्यशक्ति बढ़ाना – Militarism

यूरोप के ज्यादातर देश उस वक्त अपने आप को आधुनिक हथियारों से लेस करने की कोशिश में लगे थे, जिस कारण सभी देशों ने अपने-अपने देश में मशीन गन, टैंक, बंदूक, बड़े जहाज और इसके अलावा भी कई तरह के हथियार बनाना शुरू कर दिए थे। यानी यूरोपीय देश भविष्य में युद्ध की आशंका से और अपना दबदबा स्थापित करने के लिए हथियार के साथ बड़ी संख्या में सेना भी रखने लगे थे।

सैन्यशक्ति बढ़ाने के मामले में ब्रिटेन और जर्मनी काफी आगे थे। इन दोनों देशों के पास सब कुछ था। इन दोनों देशों ने अपनी औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution) का उपयोग अपनी सेना बढ़ाने के लिए किया और बाकी के जो देश थे, वो भी हथियारों की खरीद-बिक्री में लग गए, ताकि देश की सुरक्षा और विस्तार हो सके, क्यों की उस समय अन्य यूरोपीय देश भी इन दोनों को देखकर इनकी बराबरी करने के बारे में सोचने लगे थे।

इस सैन्यशक्ति बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा में कई देशों को ऐसा लगने लगा था कि उनकी सेना इतनी बड़ी हो गयी है कि उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, वो बहुत शक्तिशाली हो गए हैं। बढ़ती प्रतिस्पर्धा की वजह से कई देशों ने अपनी राष्ट्रीय आय का ज्यादातर हिस्सा सैन्य शक्ति बढ़ाने में खर्च करना शुरू कर दिया था।

आपकी जानकारी के लिए बता दूँ की उस समय फ्रांस और जर्मनी अपनी राष्ट्रीय आय का 85% हिस्सा सैन्य शक्ति को बढ़ाने में खर्च कर रहे थे। इस प्रकार से पूरा यूरोप बारूद के ढ़ेर के ऊपर बैठ चुका था, बस विस्फोट होने की देरी थी। इसलिए Militarism भी बहुत बड़ा कारण बना प्रथम विश्व युद्ध (World War 1) होने का।

साम्राज्यवाद – Imperialism

साम्राज्यवाद यानी अपने साम्राज्य का विस्तार करना। इस मामले में ब्रिटेन सबसे आगे था। उस समय दुनिया के 25% हिस्से में ब्रिटेन का कब्ज़ा था, इसमें हमारा भारत भी शामिल था। किसी भी देश को गुलाम बनाकर उसे लूटने में ब्रिटेन माहिर था। ब्रिटेन के इसी मॉडल को देख अन्य यूरोपीय देश, जैसे फ्रांस, पुर्तगाल और जर्मनी भी दुनिया पर कब्ज़ा कर उसे लूटना और अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहते थे।

यानी उस समय कई अन्य पश्चिमी यूरोपीय देश भी चाहते थे कि उनके साम्राज्य का विस्तार अफ्रीका और एशिया में फैले, जैसे ब्रिटेन का फैला था। इस साम्राज्यवाद की घटना को अफ्रीका के लिए हाथापाई (Scramble of Africa) भी कहा गया है। इसका मतलब था अफ्रीका पर कब्ज़ा करना। इसमें फ़्रांस, जर्मनी, पोलैण्ड, बेल्जियम आदि देश शामिल थे। इनके बीच होड़ लगी थी कि कौन अपने साम्राज्य को ज्यादा बढ़ा सकता है। इस वजह से ये देश एक-दूसरे से ईर्ष्या और एक-दूसरे को बर्बाद करने की कोशिशें करने लगे थे।

उद्योग और व्यापार प्रतिस्पर्धा – Industrial And Trade Competition

दुनिया की पहली औद्योगिक क्रांति ब्रिटेन में हुई थी, जो अपने गुलाम देशों से कच्चा माल लाकर उसे अपनी फैक्ट्रियों में तैयार करके दुनियाभर के बाजारों में बेच रहा था। ये यूरोप के अन्य देश भी देख रहे थे, फिर फ़्रांस और रूस में भी औद्योगिक क्रांति हुई और इस क्रांति से यूरोपीय अर्थव्यवस्था में एक क्रांतिकारी बदलाव आया, क्यों की इस दौर में यूरोपीय देशों में कारख़ानों और फैक्ट्रियों की स्थापना हुई, जिसने उत्पादन बहुत ज्यादा होने लगा।

अब जब उत्पादन हो रहा है, तो इन उत्पादित चीजों को बेचना भी पड़ेगा, तो इनकी बिक्री के लिए भी यूरोपीय देशों में प्रतिस्पर्धा होने लगी, जिस कारण ब्रिटेन, फ़्रांस और रूस ने अफ्रीका और एशिया में अपने औपनिवेशक बाजार बनाकर उन पर अपना अधिकार कर लिया। इन्होंने अपने राष्ट्र के ब्रांड को उत्पादनों पर छापा, जैसे मेड इन ब्रिटेन, मेड इन जर्मनी, मेड इन फ्रांस। मतलब ये देश अपने-अपने प्रोडक्ट को लोकप्रिय बनाने की कोशिश में लगे हुए थे और इस वैश्विक व्यापारिक प्रतिस्पर्धा ने इन यूरोपीय देशों में आपसी कड़वाहट पैदा कर दी।

प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ने से उत्पादन भी बढ़ा, तो इन्हे और भी ज्यादा बाजार की आवश्यकता होने लगी। इटली और जर्मनी इस प्रतिस्पर्धा में बहुत लेट शामिल हुए थे, इसलिए इनके लिए बाजार की उपलब्धता की बहुत कम संभावना थी, क्यों की ज्यादातर बाजार में ब्रिटेन और फ्रांस ने पहले से ही कब्ज़ा कर रखा था। इसलिए जर्मनी और इटली ने एक नई नीति अपनाई। नीति ये थी कि दूसरों के बाजारों में बलपूर्वक कब्ज़ा करके अपना व्यापार बढ़ाना।

राष्ट्रवाद – Nationalism

प्रतिस्पर्धा के चलते 19वीं सदी में ये नारा बहुत तेजी से फ़ैल रहा था कि मेरा देश महान है। इस नारे की शुरुआत जर्मनी के शासक कैसर विल्हेम द्वितीय ने की थी। इसके बाद यह पूरे यूरोपीय देश में फ़ैल गया। यूरोपीय देशों को लगने लगा था कि कोई भी देश लड़ाई लड़के और जीत दर्ज करके ही महान बन सकता है। इनके अनुसार किसी भी देश के निर्माण के लिए युद्ध बहुत जरुरी था, बिना युद्ध के कोई भी देश न तो महान बन सकता और न ही तरक्की कर सकता था।

धर्म का एकीकरण – Religious Intregation

उस समय यूरोप के सभी देशों में धार्मिक एकीकरण का बहुत तेजी से विकास हुआ, जिसमें लोगो के अंदर ये भावना तेजी से बढ़ने लगी की समान जाति, समान धर्म, समान भाषा और समान ऐतिहासिक परंपरा वाला व्यक्ति एक साथ रहकर काम करे तो उनकी एक अलग पहचान बनेगी और दुनिया में प्रगति भी होगी। इस आधार पर जर्मनी और इटली का एकीकरण हो चुका था। बाल्कन क्षेत्र में ये भावना ज्यादा थी।

बाल्कन प्रदेश तुर्की साम्राज्य के अंतर्गत था, लेकिन 1914 से पहले तुर्की साम्राज्य के कमजोर पड़ने के कारण बाल्कन क्षेत्र में स्वतंत्रता की मांग जोर पकड़ने लगी थी कि बाल्कन प्रदेश को आजाद करो। तुर्की, ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य और इसके अलावा भी कई अन्य क्षेत्रों में स्लाव जाति के लोग रहते थे। ये स्लाव लोग अपने अलग राष्ट्र की मांग कर रहे थे। रूस को लग रहा था कि ऑस्ट्रिया-हंगरी और तुर्की से आजाद होकर स्लाव उसके प्रभाव में आ जाएंगे, इसलिए रूस ने सर्वस्लाववाद आंदोलन को बढ़ावा दिया, इससे रूस और ऑस्ट्रिया-हंगरी के संबंधो में दरारे पड़ गयी।

ऐसे ही सर्व जर्मन आंदोलन भी चला, जिसमें सर्व, चेक और पोल जाति के लोग स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे, इससे यूरोपीय देशों में आपस में कटुता लगातार बढ़ती गयी।

समाचार पत्रों द्वारा भड़काऊ प्रचार – Inflammatory Publicity by Newspapers

जैसे आज के दौर में मीडिया के माध्यम से गलत सूचनाएं देकर लोगों को भड़काया जाता है, ठीक इसी प्रकार से प्रथम विश्व युद्ध से पहले यूरोपीय देशों के राजनेता, दार्शनिक और लेखक अपने लेखों में युद्ध की वकालत कर रहे थे। यूरोप के पास उस समय बहुत धन था, वहां के धनपति भी अपने स्वार्थ के लिए युद्ध के समर्थक बन गए, लेकिन युद्ध को बढ़ावा देने में सबसे ज्यादा भूमिका समाचार पत्रों की थी।

एक देश दूसरे देश के बारे में गलत और भड़काऊ जानकारियां प्रकाशित करता था, जिससे सम्बंधित देश के लोगों में गुस्सा बढ़ जाता था। यानी उस समय के यूरोप के समाचार पत्रों ने वातावरण को जहरीला कर युद्ध की संभावना बढ़ा दी थी।

अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की कमी – Lack Of International Organaizations

जैसे प्रथम विश्व युद्ध (World War 1) की समाप्ति के बाद League of Nationas बनाई गयी थी, वैसे प्रथम युद्ध से पहले कोई संस्था नहीं थी, जो सभी देशों के बीच समझौता कराकर शांति की स्थापना कर सके। मतलब उस समय कानूनी व्यवस्था बनाए रखने के लिए संघ जैसा कोई अंतर्राष्ट्रीय संगठन था ही नहीं। सभी देश अपनी इच्छानुसार कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र थे। इसके परिणामस्वरूप घृणा और भ्रम पैदा हुआ, जिसने यूरोपीय देशों के बीच अराजकता पैदा कर दी।

कैसर विल्हेम द्वितीय का चरित्र – Kaiser Wilhelm II’s Character

जर्मनी को जिसने खड़ा किया था, वो था बिस्मार्क। लेकिन बिस्मार्क की मृत्यु के बाद जर्मनी की सत्ता कैसर विल्हेम द्वितीय के पास आई और उसने जर्मनी को विश्व शक्ति (Super Power) बनाने का प्रयास किया, इसलिए ये लगातार अपनी आर्मी और नौ सेना बढ़ा रहा था और जब इंग्लैण्ड ने जर्मनी को अपनी नौ सेना शक्ति कम करने को कहा, तो उसने इंग्लैण्ड की बात नहीं मानी। जब बात नहीं मानी तो इंग्लैण्ड ने बर्लिन (जर्मनी की राजधानी) से बग़दाद (इराक की राजधानी) रेल्वे लाइन परियोजना, जो 1910 में शुरू हुई थी, उस पर रोक लगा दी।

इस वजह से जर्मनी और इंग्लैण्ड के बीच काफी अनबन बढ़ती ही जा रही थी, जिसने प्रथम विश्व युद्ध का दरवाजा खोलने में मदद की, तो कुछ इस प्रकार से 1914 से पहले था यूरोप का वातावरण।

तो 1914 तक पूरा यूरोप बारूद के ढ़ेर पर बैठ चुका था और इंतजार था केवल एक चिंगारी का। तो इस चिंगारी का काम किया ऑस्ट्रिया-हंगरी के राजकुमार आर्चड्युक की हत्या ने, वो कैसे? तो आइए अब उसके बारे में जान लेते हैं। यहां तक तो आप सभी को ये बात समझ में आ गयी होगी की 1914 से पहले यूरोप का माहौल कैसा था और यूरोप में क्या चल रहा था? ये सब तो यूरोप में चल ही रहा था, बस जरुरत थी चिंगारी की, तो आइए अब उस चिंगारी के बारे में जान लेते हैं, जहां से प्रथम विश्व युद्ध (World War 1) की शुरुआत होती है।

इस मैप को देखिए, इसमें जो हल्का गुलाबी (Light Pink) वाला क्षेत्र है, ये 1914 का ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य का मैप है, जो आज टूटकर कई देशों में बंट चुका है, जैसे स्लोवीनिया, क्रोएशिया, हंगरी, स्लोवाकिया, रोमानिया, पोलैंड इत्यादि। 1914 में इस पूरे साम्राज्य का राजा था फ्रांज जोसेफ (Franz Joseph)। तो पहले थोड़ा ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के बारे में जान लेते हैं, क्यों की प्रथम विश्व युद्ध की चिंगारी यहीं से जली थी।

ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य – Austria-Hungary Empire

ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के राजा फ्रांज जोसेफ के तीन लड़के थे, लेकिन तीनों में से एक भी राजा बनने के लायक नहीं था, इसलिए मजबूरन राजा ने 1889 में अपने भतीजे को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, जिसका नाम था आर्चड्युक फ्रांज फर्डिनेंड (Archduke Franz Ferdinand)।

अब कोई भी राजा हो, वो तो यही चाहेगा का उसका ही बेटा राजा बने, लेकिन मजबूरन भतीजे को अगला राजा चुनना पड़ा, जो राजा को पसंद नहीं था। इसलिए साल 1900 में जब आर्चड्युक ने शादी करने का फैसला किया, तो राजा ने कहा कि तुम्हारी शादी Magnetic होगी, यानी की आर्चड्युक की पत्नी को कोई शाही दर्जा प्राप्त नहीं होगा और न ही उनकी शादी में शाही परिवार के कोई लोग आएंगे और उनका जो बच्चा होगा वह कभी साम्राज्य का राजा नहीं बन सकता।

ऐसा ही हुआ था आर्चड्युक की शादी में, तो आर्चड्युक की शादी हुई सोफी, डचेस ऑफ होहेनबर्ग (Sophie, Duchess of Hohenberg) से। 1914 की शुरुआत में राजा फ्रांज जोसेफ बीमार पड़ गए थे। अप्रैल 1914 में उनकी तबियत ज्यादा ख़राब होने की वजह से आर्चड्युक के राजा बनने की अटकले ज्यादा तेज हो गयीं थी, इसलिए आर्चड्युक अपनी पत्नी के साथ ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य का दौरा करने लगे थे, क्यों की अगले राजा वही बनने वाले थे।

ऐसे में 28 जून 1914 के दिन, आज का जो बोस्निया और हर्जेगोविना नामक देश है, उसकी एक जगह है साराजेवों, तो इसी साराजेवों नामक जगह पर आर्चड्युक और उनकी पत्नी शाही यात्रा में निकलने के इच्छुक हुए, क्योंकि अब वो राजा बनने वाले थे, इसलिए घूमकर अपने साम्राज्य को देखना और लोगों से मिलना चाहते थे। जरुरी भी था, क्योंकि इतने बड़े साम्राज्य का राजा बनने वाले थे।

यहाँ हजारों की संख्या में शाही यात्रा में शामिल होने के लिए लोग आए हुए थे। आर्चड्युक के जो गुप्तचर थे, उन्होंने मना किया हुआ था आर्चड्युक को इस जगह पर आने के लिए, लेकिन राजकुमार आर्चड्युक को इस जगह पर जाना ही था। अब आप लोग सोच रहे होंगे की आर्चड्युक के गुप्तचर, उन्हें इस जगह पर आने से क्यों रोक रहे थे, जो कि यह जगह उनके ही साम्राज्य का हिस्सा था।

तो बात ये थी की 1908 में ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के राजा फ्रांज जोसेफ ने बोस्निया और हर्जेगोविना देश पर कब्ज़ा कर अपने साम्राज्य में मिला लिया था, अब शामिल कर ही लिया था तो बोस्निया और हर्जेगोविना देश का अपना अस्तित्व मिट रहा था। इस वजह से इस देश के कई नाखुश लोग क्रांतिकारी बन चुके थे। इन्ही क्रांतिकारियों में से एक ग्रुप का नाम था Black Hand, तो इन क्रांतिकारियों की डर की वजह से आर्चड्युक के गुप्तचरों ने उन्हें यहाँ आने से मना किया था, क्यों की क्रांतिकारियों की वजह से इस शहर में राजकुमार का आना खतरे से खाली नहीं था।

लेकिन आर्चड्युक ने अपने गुप्तचरों की बात को ये कहते हुए टाल दिया कि हमें कुछ नहीं होगा, भगवान पर भरोसा रखना चाहिए। गुप्तचर डर इसलिए भी रहे थे, क्यों की आर्चड्युक पर तीन बार पहले भी हमले हो चुके थे। आर्चड्युक अपनी पत्नी को लेकर साराजेवों शहर पहुंचे, जहाँ भीड़ में क्रांतिकारी भी मौजूद थे, उनमें से एक क्रांतिकारी जिसका नाम था गैवरिलो प्रिंसिप, उसने शाही यात्रा के दौरान आर्चड्युक और उनकी पत्नी दोनों की गोली मारकर हत्या कर दी।

बस यहीं से प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत होती है। वैसे भी मैंने आपको ऊपर बताया की यूरोप का माहौल गरम था ही बस एक चिंगारी की आवश्यकता थी, तो वो चिंगारी मिल गयी। सोचिए अगर आर्चड्युक अपने गुप्तचरों की बात मान लेता, तो जैसी दुनिया हम आज देख रहे हैं वो शायद नहीं होती। तो आइए अब प्रथम विश्व युद्ध (World War 1) के बारे में जानते हैं।

प्रथम विश्व युद्ध की कहानी – Story of World War 1

जैसा की मैंने ऊपर ही बताया की बोस्निया और हर्जेगोविना के साराजेवों शहर में ऑस्ट्रिया-हंगरी के राजकुमार आर्चड्युक और उनकी पत्नी की शाही सवारी के दौरान भीड़ में शामिल गैवरिलो नाम के एक क्रांतिकारी ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। इनकी हत्या में एक Black Hand संस्था का भी योगदान था, जो कि सर्बिया देश की थी। यानी की क्रांतिकारी तो बोस्निया और हर्जेगोविना देश के थे, लेकिन इनको समर्थन देने वाली संस्था सर्बिया देश की थी।

मामला ये था की ऑस्ट्रिया हंगरी के राजा फ्रांज जोसेफ ने 1908 में बोस्निया हर्जेगोविना पर कब्ज़ा कर लिया था, इस वजह से इस देश के लोग अपनी स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे और इनका साथ दे रही थी सर्बिया की एक संस्था Black Hand, क्यों की इन देशों में सर्व या स्लाविक लोगों की आबादी ज्यादा थी। मतलब राजकुमार आर्चड्युक और उनकी पत्नी की मौत का जिम्मेदार सर्बिया भी था।

अब ऑस्ट्रिया हंगरी साम्राज्य के राजकुमार की हत्या की गयी थी, तो ये चुप तो नहीं बैठने वाले थे, लेकिन आपको जानकार बड़ी हैरानी होगी की ऑस्ट्रिया-हंगरी के राजकुमार आर्चड्युक की मृत्यु के पश्चात् उसके चाचा फ्रांज जोसफ, जो ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के राजा थे, वो काफी दिनों तक शांत रहे और इस पूरी घटना को ईश्वर द्वारा की गयी अनहोनी कहकर रफा-दफा कर दिया था।

लेकिन इस साम्राज्य का जो सेनापति था उसने फ्रांज जोसेफ को उकसाया की क्यों न हम राजकुमार आर्चड्युक की मृत्यु का बदला लेने के बहाने सर्बिया को ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य में मिला ले, क्यों की सर्बिया इस राज्य के बॉर्डर पर ही था। राजकुमार आर्चड्युक की हत्या के 25 दिन बाद, 23 जुलाई 1914 को ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य ने सर्बिया को 10 प्रस्ताव की चेतावनी (Ultimatum) भेजी।

इस प्रस्ताव में जो 10 अल्टीमेटम थे, वो सर्बिया को मान लेना चाहिए था, लेकिन सर्बिया ने 10 में से 8 ही बातों को माना और 2 बातों को मानने से इंकार कर किया। वो दो बाते ये थी कि सर्बिया बिना युद्ध किए ही आत्म समर्पण कर दे और ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य में मिल जाए।

जब सर्बिया ने मिलने से मना कर दिया, तो 28 जुलाई 1914 के दिन ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य ने सर्बिया के उत्तर-पश्चिमी हिस्से पर हमला कर दिया, इसलिए सर्बिया ने रूस से मदद मांगी। क्या है की रूस और सर्बिया में सर्व/स्लाव लोग रहते थे, इसलिए रूस ने सर्बिया से कहा की हम आपकी मदद करेंगे।

केवल यही बस कारण नहीं था रूस का सर्बिया की मदद करने के पीछे। ऊपर मैप देखिए रूस के दक्षिण में है काला सागर (Black Sea), यहाँ से होते हुए रूस के जहाज पूरी दुनिया से जुड़ते थे। जो जलमार्ग बीचों-बीच निकल रहा है उसके एक तरफ देखेंगे तो है ऑटोमन साम्राज्य (Ottoman Empire) है और दूसरी तरफ बुल्गारिया, सर्बिया और ग्रीस।

ऑटोमन तो वैसे भी रूस का विरोधी रहा है, तो रूस को इस बात का डर था की आज ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य सर्बिया को अपने में मिलाने की कोशिश कर रहा है, तो कल ये बुल्गारिया और ग्रीस पर भी हमला करके अपने में मिला सकता है। तो इस हिसाब से तो ऑस्ट्रिया-हंगरी और ऑटोमन साम्राज्य मिलकर ब्लैक सी से होकर जो रास्ता हमें पूरी दुनिया से जोड़ता है, उससे मुझे जाने ही नहीं देंगे ये दोनों। इसलिए इस क्षेत्र को खासतौर से जलमार्ग वाले क्षेत्र को बचाना रूस के लिए बहुत ही जरुरी था।

ये सब सोचते हुए रूस ने सर्बिया का साथ देने का तय किया। वही दूसरी तरफ ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य जर्मनी के पास पहुँच गया। याद करिए हमने आपको ऊपर Triple Alliance संधि 1882 के बारे में बताया था, जिसमें ऑस्ट्रिया-हंगरी, जर्मनी और इटली शामिल थे। इस हिसाब से जर्मनी भी ऑस्ट्रिया-हंगरी के तरफ से इस युद्ध में कूद पड़ा और कहा की हम सभी तरीके से आपकी मदद करेंगे और दोनों ने मिलकर सर्बिया पर हमला कर दिया।

लेकिन संधि में शामिल इटली ने ऑस्ट्रिया-हंगरी की मदद करने से इंकार कर दिया, इटली का कहना था कि संधि इस बात की हुई थी कि अगर हम तीनों में से किसी एक के ऊपर कोई अन्य देश आक्रमण करेगा, तो वह तीनों देशों में आक्रमण माना जाएगा, इस हिसाब से हम तीनों देश मिलकर लड़ेंगे, लेकिन यहाँ पर आप खुद किसी दूसरे देश पर आक्रमण कर रहे हैं, इसलिए मै इसमें शामिल नहीं हो सकता।

जैसे ही जर्मनी ने ऑस्ट्रिया-हंगरी के साथ मिलकर सर्बिया पर आक्रमण किया, वैसे ही रूस ने भी उत्तर-पश्चिम की तरफ से जर्मनी पर आक्रमण कर दिया, क्योंकि रूस, सर्बिया के पक्ष में था। ऊपर हमने आपको Triple Entente संधि 1907 के बारे में भी बताया था, जो रूस, ब्रिटेन और फ्रांस के बीच हुई थी, अब रूस युद्ध में कूद पड़ा था तो संधि के हिसाब से ब्रिटेन और फ्रांस को भी रूस की मदद करनी थी।

इसलिए 03 अगस्त 1914 को फ्रांस ने जर्मनी पर पश्चिमी दिशा से आक्रमण कर दिया। मतलब जर्मनी पर दो तरफ से युद्ध शुरू हो चुका था, इस कारण जर्मनी ने एक प्लान बनाया। जर्मनी को ये पता था की रूस को आसानी से नहीं हराया जा सकता, क्यों की रूस की सरजमीं पर बर्फ ही बर्फ है, जिसमें रूस की आर्मी आसानी से सरवाइव कर सकती है, लेकिन हमारी आर्मी को इस प्रकार की जगह में युद्ध लड़ने का कोई अभ्यास नहीं है।

इसलिए जर्मनी ने प्लान बनाया की पहले हम फ्रांस को हरा देते हैं फिर हम रूस पर हमला करेंगे, तो जर्मनी ने फ्रांस पर सीधा हमला नहीं किया, उसने पहले फ्रांस के ऊपर स्थित देश बेल्जियम पर आक्रमण किया, ताकि बेल्जियम को हराकर वह फ्रांस में प्रवेश कर सके, लेकिन जर्मनी ने जैसे ही बेल्जियम पर आक्रमण किया वैसे ही ब्रिटेन भी युद्ध में कूद पड़ा।

क्यों की 1839 में ब्रिटेन और बेल्जियम के बीच एक संधि हुई थी, जिसका नाम था लंदन संधि, इसमें तय हुआ था कि अगर कोई बेल्जियम पर आक्रमण करेंगा, तो ब्रिटेन उसकी मदद करेगा। इसलिए 08 अगस्त को ब्रिटेन ने भी जर्मनी पर आक्रमण कर दिया।

उस समय जर्मनी बहुत बड़ी ताकत था। जर्मनी की सेना बेल्जियम को पार करते हुए फ्रांस के अंदर फ्रांस की राजधानी पेरिस के काफी करीब तक पहुँच गयी थी। लेकिन तब तक ब्रिटेन की आर्मी भी यहाँ तक पहुँच चुकी थी, जिसने जर्मन आर्मी को रोक दिया था। वही दूसरी तरफ जर्मन आर्मी ने रूस के 03 लाख सैनिकों को मार गिराया था। यानी जर्मनी अब तक काफी मजबूत नजर आ रहा था।

अभी तक मध्य पूर्व (Middle East) शांत था। मिडिल ईस्ट बोलें तो आज जहाँ तुर्की, सीरिया, इराक, ईरान, लेबनान, जॉर्डन, फिलिस्तीन हैं, वहां उस समय ऑटोमन साम्राज्य था।

उस समय ऑटोमन साम्राज्य का लीडर स्माइल एनवर पाशा था, जिसे कमाल पाशा भी कहा जाता है। वाकई में ये कमाल का लीडर था, क्योंकि इससे पहले ऑटोमन साम्राज्य ने जो दो वाल्कन युद्ध किए थे, तब कमाल पाशा ही लीडर था। 500-700 साल पहले से ही रूस और ऑटोमन साम्राज्य की दुश्मनी थी, तो मौका देखते हुए ऑटोमन साम्राज्य ने नवंबर 1914 में ब्लैक सी के किनारे जो रूस का हिस्सा था, उस पर आक्रमण कर दिया।

यानी एक तरफ जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और ऑटोमन साम्राज्य था, तो वही दूसरी तरफ सर्बिया, फ्रांस, रूस और ब्रिटेन। ऊपर मैप देखिए, ब्रिटेन के जहाज जो भारत और एशिया से सामान और सैनिक लेकर आते थे, वो स्वेज नहर से होकर ही गुजरते थे और ये क्षेत्र ऑटोमन साम्राज्य से लगा हुआ था, इसलिए कमाल पाशा ने स्वेज नहर पर आक्रमण कर दिया, ताकि ब्रिटेन के जहाज रोके जा सके।

कहा जाता है की अगर ऑटोमन साम्राज्य यह रास्ता रोक लेता तो ब्रिटेन यह युद्ध हार सकता था, क्यों की इसी रास्ते भारत के हजारो सैनिकों को इस युद्ध के लिए ले जाया गया था, लेकिन ऑटोमन साम्राज्य स्वेज नहर पर कब्ज़ा नहीं कर पाया था।

अब जैसा की मैंने ऊपर बताया की जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और इटली के बीच जो संधि हुई थी कि युद्ध के दौरान हम एक दूसरे की मदद करेंगे, लेकिन इटली इस बात से मुकर गया था। मुकरा था अपनी बात से, यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन अगले साल 1915 में इटली ने अपना पलड़ा बदलकर ब्रिटेन और फ्रांस के साथ मिल गया और इटली ने अपने ही मित्र राष्ट्र ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया।

उन दिनों ब्रिटेन का जिन-जिन देशों पर कब्ज़ा था, तो वह वहां के सैनिकों को भी युद्ध में लड़ने के लिए जहाज भर-भर के बुला रहा था, जिसमें भारत, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाड़ा, दक्षिण अफ्रीका इनके अलावा भी और कई देश शामिल थे। ये देख जर्मनी की चिंता बढ़ने लगी थी कि इसके पास तो बहुत ज्यादा सैनिक हो जाएंगे और ये हम पर हावी हो जाएगा।

इसलिए फरवरी 1915 में जर्मनी ने अपनी पनडुब्बियों (Submarine) को उत्तरी अटलांटिक महासागर में उतारा और खासतौर से एशिया तथा भारत से आ रहे ब्रिटेन के जहाजों को उड़ाना शुरू कर दिया, ताकि ब्रिटेन को कमजोर किया जा सके।

युद्ध में बौखलाए जर्मनी की पनडुब्बियों ने यात्री जहाजों पर भी निशाना साधा। मई 1915 में जर्मनी ने ब्रिटेन के liner Lusitania नामक यात्री जहाज को, जो ब्रिटेन से अमेरिका जा रहा था, उस पर हमला किया, इसमें कुल 1153 लोग मारे गए, इसमें 128 लोग अमेरिका के भी थे।

इस घटना से पहले तक अमेरिका का यही कहना था की यह युद्ध यूरोपीय देशों के बीच का है, इसलिए हम इस युद्ध में किसी के साथ नहीं हैं। अभी तक चल रहे इस युद्ध के चलते अमेरिका दोनों पक्षों को हथियार बेचकर बहुत पैसा कमा लिया था और अमेरिका इसी काम से खुश था, लेकिन जर्मनी द्वारा अमेरिका के 128 लोगों को मारे जाने की खबर सुनते ही अमेरिका का पारा हाई हो गया और उसने मन बना लिया कि जर्मनी से बदला तो लेना पड़ेगा और अमेरिका ने इस युद्ध में शामिल होने की तैयारी शुरू कर दी थी।

इसके अलावा दूसरी बात ये की जर्मनी ने अमेरिका के पड़ोसी देश मैक्सिको को एक सीक्रेट लेटर भेजा था कि आप अमेरिका पर हमला कर दो, पर मैक्सिको ने अमेरिका पर हमला नहीं किया। गड़बड़ ये हो गयी कि जर्मनी द्वारा भेजा गया वह लेटर अमेरिका के हाथ लग गया और अमेरिका को पता चल गया की जर्मनी उस पर हमला करवाना चाहता है। दूसरा यही कारण था अमेरिका का इस युद्ध में शामिल होने का।

उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति थे वुडरो विल्सन, उन्होंने दोनों घटनाओं को अमेरिकी संसद में पास करवाया और निर्णय लिया की अब हमें इस युद्ध में शामिल हो जाना चाहिए। इसके अलावा विल्सन ने 14 प्वाइंट का एक पत्र तैयार करवाया, जिसमें इन बातों का उल्लेख था की युद्ध के पश्चात् दुनिया के नीतिगत नियमों जैसे आर्थिक-सामाजिक-न्यायिक-व्यापारिक-कूटनीतिक-राजनीतिक मामलों में किस प्रकार के बदलाव किए जाएंगे, ये 14 प्वाइंट आप इमेज में पढ़ सकते हैं।

इसमें सबसे बड़ी और मुख्य इस बात का उल्लेख किया गया था कि दुनिया के लिए एक ऐसी संस्था का गठन करना, जो इस प्रकार के युद्ध को रोक सके, जैसे इस युद्ध के बाद लीग ऑफ नेशन (League Of Nation) की स्थापना हुई थी। इन सबकी घोषणा करने के बाद अमेरिका भी इस युद्ध में शामिल हो गया।

इस मैप को देखिए, इसमें रेड कलर के देश एक तरफ हैं और हरे कलर के देश एक तरफ। रेड कलर वाले देशों को Central Powers या एक्सिस पॉवर कहा गया और हरे कलर वाले देशों को Allied Powers, यानी मित्र राष्ट्र कहा गया। तो अमेरिका इस युद्ध में Allied powers, यानी ब्रिटेन-फ्रांस की ओर से शामिल हुआ।

अमेरिका ने अपने 10,000 सैनिक प्रतिदिन जर्मनी और फ्रांस के बॉर्डर पर उतारना शुरू कर दिए। वहीं दूसरी तरफ जो रूस का राजा था चार्ल्स निकोलस द्वितीय, जिसने रूस को इस युद्ध में धकेला था, उसके खिलाफ फरवरी 1917 में विरोध प्रदर्शन होने लगे। रूस में राजा के खिलाफ बिल्कुल क्रांति (Revolution) का दौर चल रहा था और इस Revolution की वजह से चार्ल्स निकोलस द्वितीय की सत्ता छिन गयी और नई सरकार का गठन हुआ।

लेकिन कुछ ही महीने बाद अक्टूबर में एक बार फिर से रूस में Revolution हुआ, जो लेनिन और उसकी पार्टी ने किया था, क्योंकि रूस इस युद्ध के कारण बर्बाद होने लगा था। आर्थिक रूप से रूस की तिजोरियां खाली हो रहीं थी। इस Revolution के बाद रूस में लेनिन की सरकार बनी। लेनिन सरकार युद्ध खत्म कर शांति चाहती थी। लेनिन का कहना था की रूस को लड़ाई नहीं करना चाहिए, इसलिए लेनिन ने जर्मनी से शांति समझौता करने का मन बना लिया।

मार्च 1918 में रूस और जर्मनी के बीच शांति समझौता हुआ, जिसके बाद रूस इस युद्ध से बाहर हो गया। अब जर्मनी की पूर्वी तरफ की लड़ाई खत्म हो चुकी थी, उसे अब केवल दूसरी तरफ फ्रांस से लड़ना था, इसलिए जर्मनी की पूर्वी आर्मी को फ्रांस की तरफ लड़ने के लिए बुलाया गया, पर इस तरफ अमेरिका की आर्मी पहुँच चुकी थी और जहाज भर-भरकर और आर्मी आ रही थी, जिसने जर्मनी की उम्मीदों पर पानी फेर दिया।

इधर अमेरिका की युद्ध में एंट्री और रूस में Revolution चल रहा था, वहीं दूसरी तरफ 1918 आते-आते Allied Powers ने बाल्कन और मिडिल ईस्ट में सेंट्रल पॉवर को पूरी तरह से हरा दिया था। यानी ऑस्ट्रिया-हंगरी, बुल्गारिया और ऑटोमन साम्राज्य ने आत्म-समर्पण कर दिया था, क्योंकि मिडिल ईस्ट में Allied Powers की मदद करने के लिए रोमानिया, ग्रीस, पुर्तगाल और मोंटेनिग्रो जैसे देश आ गए थे, इस वजह से सेंट्रल पॉवर कमजोर हो चुका था।

अब सेंट्रल पॉवर की तरफ से अकेला केवल जर्मनी बचा था, जो फ्रांस के बॉर्डर पर फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका से लड़ रहा था, लेकिन अमेरिका और ब्राजील की आर्मी आ जाने की वजह से जर्मनी भी हार गया और जर्मनी ने भी आत्म-समर्पण कर दिया। इस हार के बाद जर्मनी के लोग जर्मनी के राजा कैसर विल्हेम द्वितीय के विरोध में आ गए, इसलिए कैसर विल्हेम द्वितीय जर्मनी से हालैंड भाग गया।

11-11-1918 के दिन सुबह 11 बजे जर्मनी ने युद्ध समापन पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए यहीं से प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ था।

अब ये जान लेते हैं कि प्रथम विश्व युद्ध – World War 1, में शामिल हुए देशों में से किस देश के कितने सैनिक मृत व कितने सैनिक घायल हुए। हालांकि, कुछ सैनिकों को दूसरे देशों द्वारा बंदी भी बना लिया गया था।

प्रथम विश्व युद्ध में विभिन्न देशों के मारे गए व घायल हुए सैनिकों की संख्या – Number of soldiers killed and wounded in World War 1 from different countries

  • ऑस्ट्रिया-हंगरी: 12,00,000 मृत, 36,20,000 घायल
  • सर्बिया: 45,000 मृत, 1,33,148 घायल
  • जर्मनी: 17,73,700 मृत, 42,16,058 घायल
  • ग्रेट ब्रिटेन: 9,08,371 मृत, 20,90,212 घायल
  • फ्रांस: 13,57,800 मृत, 42,66,000 घायल
  • ऑटोमन साम्राज्य (तुर्की): 3,25,000 मृत, 4,00,000 घायल
  • इटली: 6,50,000 मृत, 9,47,000 घायल
  • पुर्तगाल: 7,222 मृत, 13,751 घायल
  • रोमानिया: 3,35,706 मृत, 1,20,000 घायल
  • रूस: 17,00,000 मृत, 49,50,000 घायल
  • बेल्जियम: 13,716 मृत, 44,686 घायल
  • बुल्गारिया: 87,500 मृत, 1,52,390 घायल
  • अमेरिका: 1,16,516 मृत, 2,04,002 घायल
  • ग्रीस: 5,000 मृत, 21,000 घायल
  • जापान: 300 मृत, 907 घायल
  • मोंटेनिग्रो: 3,000 मृत, 10,000 घायल

कुल योग: 85,28,831 मृत, 21,189,154 घायल

इस पूरे युद्ध में करीब 01 करोड़ आम लोग भी मारे गए थे, जिनका युद्ध से कोई लेना-देना नहीं था और करीब 02 करोड़ 10 लाख के आसपास लोग घायल हो गए थे। वैसे ये आंकड़े कुछ और भी हो सकते हैं, क्योंकि लगभग चार साल तक चले इस युद्ध में कब कहां कितने लोग मारे गए, कितने लापता हुए और कितने घायल हुए इसकी कोई सटीक जानकारी नहीं है।

अब इस प्रथम विश्व युद्ध – World War 1, के दौरान जो कुछ बड़ी-बड़ी लड़ाइयां हुई थी, उनके बारे में जान लेते हैं।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लड़ी गयी कुछ बड़ी लड़ाईयां – Some of the major battles fought during the World War 1

1. Battle Of Vardun:

यह लड़ाई 21 फरवरी 1916 में फ्रांस और जर्मनी के बीच शुरू हुई थी और 18 दिसंबर 1916 तक चली थी, इसमें करीब 3 लाख सैनिक शहीद हुए थे और ये लड़ाई फ्रांस ने जीत ली थी।

2. Battle Of Marne:

यह मार्ने नदी के आसपास लड़ाई लड़ी गयी थी। यहां पर दो बार लड़ाई हुई थी। पहली 1914 में 06 सितम्बर से 12 सितम्बर तक चली थी, इसमें फ्रांस की जीत हुई थी, इसमें कुल 05 लाख सैनिक शहीद हुए थे। दूसरी लड़ाई 1918 में 15 जुलाई से 06 अगस्त के बीच लड़ी गयी थी, इस लड़ाई में फ्रांस की तरफ से अमेरिका शामिल हो गया था। इस लड़ाई को भी जर्मनी हार गया था, इसमें लगभग 02 लाख सैनिक शहीद हो गए थे।

3. Battle Of Somme:

01 जुलाई से 18 नवंबर 1916 तक यह लड़ाई सोमी नदी के किनारे लड़ी गयी थी। इस लड़ाई में टैंक का इस्तेमाल हुआ था। यह आधुनिक इतिहास की सबसे प्रसिद्ध लड़ाई है, क्योंकि इस लड़ाई में एक दिन में 80 हजार सैनिक मारे गए थे। दुनिया के किसी भी युद्ध में एक दिन में इतने सैनिक नहीं मारे गए थे, इसमें कुल 03 लाख सैनिक शहीद हो गए थे।

इनके अलावा भी कई लड़ाईयां लड़ी गयी थी जैसे-

  • Battle of Cambrai
  • Battle of Arras
  • Battle of Vimy Ridge
  • The Battle of Ypres

The Battle of Ypres के द्वितीय युद्ध में जर्मनी ने जहरीली गैस का प्रयोग किया था। मानव जाति के इतिहास में युद्ध के दौरान जहरीली गैस का इस्तेमाल करने वाला जर्मनी पहला देश था।

प्रथम विश्व युद्ध के तात्कालिक परिणाम – immediate consequences of the world war 1

प्रथम विश्व युद्ध – World War 1, को दुनिया की सबसे विनाशकारी घटनाओं के रूप में देखा जाता है, क्योंकि युद्ध में शामिल ज्यादातर देशों को आर्थिक रूप से बहुत नुकसान हुआ था। प्रथम विश्व युद्ध का पूरा खर्चा देखे तो लगभग 180 बिलियन डॉलर था, जिसकी वजह से अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्थाएँ टूटने लगी थी और चारो तरफ सामाजिक तनाव, बेरोजगारी और गरीबी फैल गयी थी।

युद्ध जीतने के बाद Allied Powers के सभी देश फ्रांस की राजधानी पेरिस में वर्साय नामक महल में इकट्ठा हुए। Allied Powers के मुख्य देश अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन थे, यहां पर रूस को भी होना चाहिए था, लेकिन रूस को नहीं बुलाया गया था। यहां इकट्ठा होने का मुख्य उद्देश्य हारे हुए देश यानी कि Central Power में शामिल देशों का भविष्य तय करना था।

लगभग 27 देशों के प्रतिनिधियों ने वर्साय संधि में भाग लिया, लेकिन सभी प्रमुख निर्णय अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन के प्रमुखों के द्वारा लिए गए। पराजित देशों को इसमें भाग लेने की अनुमति नहीं थी। पराजित देशों के साथ इन तीनों देशों ने कई संधियों पर हस्ताक्षर करवाए। इन सभी संधियों में सबसे प्रमुख संधि थी वर्साय की संधि, जिस पर जर्मनी को मजबूरन हस्ताक्षर करना पड़ा, क्योंकि जर्मनी इस युद्ध में हार गया था।

वर्साय की संधि – Treaty of Versailles

प्रथम विश्व युद्ध में पराजित जर्मनी ने 28 जून 1919 के दिन वर्साय की सन्धि पर हस्ताक्षर किए। यह संधि Allied Powers और जर्मनी के बीच हुई थी। इस संधि की वजह से जर्मनी को अपनी भूमि के एक बड़े हिस्से से हाथ धोना पड़ा, दूसरे देशों पर कब्जा करने की पाबन्दी लगा दी गयी तथा सेना का आकार सीमित करने का आदेश दिया गया और भारी क्षतिपूर्ति थोप दी गयी।

क्षतिपूर्ति की इतनी ज्यादा रकम जर्मनी पर थोप दी गयी की उसकी कई पीढ़ी कर्ज चुकाने में बीत गयी। 1919 से 2010 तक में जर्मनी ये क्षतिपूर्ति चुका पाया। वर्साय की सन्धि को जर्मनी पर जबरदस्ती थोपा गया था। इस संधि के अनुसार जर्मनी अब अपनी सेना में 01 लाख से अधिक सैनिक नहीं रख सकता था और जर्मनी की अफ्रीका में जितनी भी कॉलोनीज थी उन्हें फ्रांस और ब्रिटेन ने आपस में बांट लिए।

ऊपर इमेज को देखिए जो डार्क वाला हिस्सा दिख रहा है, वह प्रथम विश्व युद्ध – World War 1, से पहले पूरा जर्मनी का था, लेकिन वर्साय की संधि के बाद उत्तर-पूर्व का कुछ हिस्सा पोलैंड को और पश्चिम का कुछ हिस्सा फ्रांस और बेल्जियम को दे दिया गया। जर्मनी को इस पूरे युद्ध का दोषी माना गया, इस कारण एडोल्फ हिटलर और अन्य जर्मन लोग इसे अपमानजनक मानते थे और इस तरह से यह सन्धि द्वितीय विश्व युद्ध होने के कारणों में से एक थी।

ऐसी ही इन्होंने एक संधि ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य से की, जिसे Saint Germain संधि कहा जाता है। इस संधि के अनुसार ऑस्ट्रिया-हंगरी को दो अलग-अलग हिस्सों में किया गया और फिर इन दोनों को भी तोड़ा गया। ऊपर इमेज को देखिए, येलो वाला पूरा भाग पहले ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद इसे तोड़कर चेकोस्लोवाकिया, ऑस्ट्रिया, हंगरी, रोमानिया और यूगोस्लाविया नए देश बनाए गए। इसके अलावा कुछ भाग इटली और पोलैंड में मिला दिया गया। इस प्रकार से ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य को तहस-नहस कर दिया गया।

इसके बाद Sevres की संधि ने ऑटोमन साम्राज्य का पतन कर दिया। नीचे इमेज में आपको जो कलर वाला हिस्सा दिख रहा है, वह था ऑटोमन साम्राज्य। इसको भी Sevres की संधि के तहत तोड़ दिया गया, इसमें एक तुर्की देश बनाया गया। ऑटोमन साम्राज्य के राजा कमाल पाशा को इस तुर्की का राजा बनाया गया। इसके उत्तर-पूर्वी हिस्से को तोड़कर आर्मेनिया देश बनाया गया।

उत्तर-पश्चिम के कुछ हिस्से को ग्रीस में मिला दिया गया। तुर्की के नीचे, यानी की दक्षिणी हिस्से में इटली ने कब्ज़ा कर लिया। आज जहां सीरिया है वहां फ्रांस ने कब्ज़ा कर लिया और आज जहां इराक है वहां ब्रिटेन ने कब्ज़ा कर लिया। संधि में यह तय किया गया था की इन्हे तब तक गुलाम बना के रखना है, जब तक ये कालोनियां आत्म निर्भर न हो जाए।

इसके अलावा एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया स्वतंत्र राष्ट्र बनकर उभरे। कुलमिलाकर ऐसा कहे की प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई संधियों ने यूरोप और मिडिल ईस्ट का नक्शा ही बदल दिया था।

यहाँ पर स्पष्ट रूप से समझ में आ रहा है की प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और ऑटोमन साम्राज्य के साथ किए गए शांति समझौते असमान और जबरदस्ती थोपे गए समझौते थे, जो बिना किसी विचार विमर्श के किए गए समझौते थे।

और आखिर में अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने 14 प्वाइंट का जो पत्र तैयार किया था, उसकी सबसे महत्वपूर्ण बात थी दुनिया में शांति और सुरक्षा बनाए रखना। इस आधार पर वर्ष 1920 में लीग ऑफ नेशन (LEAGUE OF NATONS) की स्थापना हुई। तो लीग ऑफ नेशन इसलिए बनाया गया था, ताकि दुनिया में शांति बनी रहे।

प्रथम विश्व युद्ध में भारत का योगदान – India’s Contribution In World War 1

तो आजादी से पहले का जो भारत था उसमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा, इन सब को मिलाकर यहाँ से 12 लाख लोगों को अंग्रेज ले गए थे। इनमें से 08 लाख सैनिक और 04 लाख बाकी के कामों के लिए ले जाए गए थे। कोई भी सैनिक अगर युद्ध लड़ने से मना करता था, तो उसे कड़ी-से-कड़ी सजा दी जाती थी।

भारत के सैनिक इस युद्ध में ऑटोमन साम्राज्य के खिलाफ मोसोपोटैमिया की लड़ाई से लेकर पश्चिम यूरोप और मिस्र में लड़े थे। युद्ध के दौरान करीब 50 हजार भारतीय शहीद हो गए थे, जिसकी याद में अंग्रेजों ने दिल्ली में इंडिया गेट का निर्माण करवाया।

अब आप सभी के दिमाग में एक सवाल आ रहा होगा कि जब भारत अंग्रेजो से आजादी चाहता था, तो फिर भी भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के लिए प्रथम विश्व युद्ध में भाग क्यों लिया, तो इसका उत्तर यह है कि इस प्रथम विश्व युद्ध को लोग लोकतंत्र के लिए लड़ाई (Fight For Democracy) मान रहे थे। अंग्रेजों ने आधिकारिक तौर पर इस बात का ऐलान भी किया था कि यह युद्ध लोकतंत्र के लिए है। इसके अलावा हमें यह भी लगा था कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद अंग्रेज हमें आजाद करके चले जाएंगे।

भारत के अलावा भी कई अन्य उपनिवेशक देश आजादी की उम्मीद में इस लड़ाई में अंग्रेजों की तरफ से लड़ रहे थे, लेकिन इन उपनिवेशक देशों को झटका तब लगा, जब युद्ध समाप्ति के बाद ब्रिटेन ने इस बारे में कोई भी बात करने से मना कर दिया। इसके बाद ही हमारे देश में रॉलेट एक्ट -Rowlatt Act आया और जलियावालां बाग नरसंहार हुआ।

युद्ध के तुरंत बाद 1919 में ही गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट आया। ये सब देख उन भारतीय नेताओं को बड़ी निराशा हुई, जो इस प्रथम विश्व युद्ध के पक्ष में थे और भारतीय सैनिकों द्वारा ब्रिटेन की तरफ से इस युद्ध को लड़ने में समर्थन दे रहे थे।

प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम – Results of the World War 1

साम्राज्यवाद का अंत – End Of Imperialism

जैसा की मैंने ऊपर ही बताया की प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और ऑटोमन साम्राज्य का विघटन हो गया। ऐसे ही 1917 में रूस में जो Revolution हुए, उसके परिणामस्वरूप रोमनेव राजवंश, यानी की चार्ल्स निकोलस द्वितीय की सत्ता समाप्त हो गयी और लोकतंत्र की स्थापना हुई।

विश्व राजनीति पर यूरोप का प्रभाव कम हुआ – Europe Influence On World’s Politics

प्रथम विश्व युद्ध – World War 1, से पहले विश्व राजनीति में यूरोप की अग्रणी भूमिका थी। जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और रूस के इर्द-गिर्द विश्व की राजनीति घूमती थी, लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के बाद यह स्थिति बदल गयी और विश्व की राजनीति में अमेरिका का दबदबा बढ़ गया, क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हथियार बेच-बेचकर अमेरिका विश्व शक्ति बनने का अभियान शुरू कर चुका था।

द्वितीय विश्व युद्ध की नींव – Foundations of World War 2

प्रथम विश्व युद्ध – World War 1, समाप्ति के बाद विभिन्न संधियों के माध्यम से अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ने जिस प्रकार से पराजित देशों के साथ व्यवहार किया था, उसे देखकर ही ऐसा लगने लगा था कि भविष्य में इस प्रकार की घटनाएँ फिर से दोहराई जाएंगी, क्योंकि इन तीनों देशों ने जिस प्रकार का व्यवहार किया था, वह अपमानित करने जैसा था।

इस वजह से कुछ दिनों बाद से ही ये अपमानित देश अपने आपको संगठित और संधियों को तोड़ना शुरू कर दिए। इस प्रकार से द्वितीय विश्व युद्ध की तैयारी प्रथम विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद से ही शुरू हो गयी थी।

सैन्य परिणाम – Military Outcome

संधियों में पराजित देशों की सैन्य शक्तियों को कम करने के लिए निरस्तीकरण की व्यवस्था की गई। इस रणनीति का सबसे ज्यादा शिकार जर्मनी हुआ था, क्योंकि वह अपनी सेना में 01 लाख से ज्यादा सैनिक नहीं रख सकता था। वहीं ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और अमेरिका अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने में लगे थे। इससे पराजित देशों को यह डर लगने लगा की भविष्य में हमारे लिए यह खतरा साबित हो सकता है, इसलिए हारे हुए देश खुद की सुरक्षा और अपने आप को मजबूत करने के लिए प्रयास में लग गए। इस वजह से यूरोप में फिर से हथियार बढ़ाने की होड़ शुरू हो गयी, जिसका विश्व शान्ति पर बुरा प्रभाव पड़ा।

आर्थिक संकट का बढ़ना – Escalation of Economic Crisis

जैसा की हम सभी जानते है कि जो देश युद्ध लड़ता है, वह आर्थिक रूप से कमजोर हो ही जाता है और यह तो युद्ध इतना लंबा चला था कि बहुत से देश कंगाल हो गए थे। इस वजह से उन देशों में करों (Taxes) का बोझ बहुत बढ़ गया था, क्योंकि देश को एक बार फिर से खड़ा करने की बात थी।

महिलाओ की स्थिति में सुधार – Improving The Status of Women

प्रथम विश्व युद्ध से पहले ज्यादातर महिलाओं को चार दीवारी के अंदर रहकर काम करना पड़ता था, उन्हें बाहर के किसी काम के लायक नहीं समझा जाता था, लेकिन इस दौरान जब ज्यादातर पुरुष युद्ध लड़ने गए थे, तो महिलाओ ने फैक्ट्री और कारखानों को चलाया था। यानी की महिलाओ ने सभी तरह के कामों में अपनी भागीदारी को निभाया। इस वजह से ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में पहली बार महिलाओ को मतदान (VOTE) करने का अधिकार और जॉब करने का मौका मिला।

तकनीकी बदलाव – Technological Changes

इतिहास में पहली बार रेडियो, टैंक, केमिकल, सबमरीन, गैस, इमरजेंसी सेवा, निगरानी के लिए प्लेन आदि का इस्तेमाल इस युद्ध के दौरान किया किया गया, इसलिए प्रथम विश्व युद्ध को तकनीकी युद्ध भी कहा जाता है।

उस समय इस युद्ध को Global War, The Great War जैसे कई नाम दिए गए थे, क्योंकि दुनिया को लगा कि ऐसा युद्ध अब दोबारा कभी नहीं होगा, इसलिए इसे The War to End All Wars भी कहा गया था, लेकिन 20 साल बाद इससे भी बड़ा युद्ध हुआ, इसलिए उसे द्वितीय और इसे प्रथम विश्व युद्ध कहा गया।

तो ये रहा प्रथम विश्व युद्ध – World War 1 का इतिहास और उसकी पूरी विस्तृत कहानी। उम्मीद करता हूँ की आप सभी को जरूर प्रथम विश्व युद्ध के बारे में कुछ न कुछ जानने को जरूर मिला होगा।

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